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________________ तपोयोग साधना-१ १० बाह्यतप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना 'तप' का अभिप्राय 'तप' दो लघु अक्षरों से निर्मित एक छोटा-सा शब्द है; किन्तु है बड़ा शक्तिशाली। जब 'तप' का योग आत्मा से हो जाता है और यह तपोयोग बन जाता है तब असीमित शक्ति को प्रस्फुटित करता है। जिस प्रकार वैज्ञानिक अण का विखंडन विद्य त तरंगों के माध्यम से करके असीमित ऊर्जा तथा शक्ति प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार मानव अपने विद्यु त शरीर में बहने वाली विद्युत धारा का तप के साथ संयोग करके, तप को तपोयोग में परिणत करके असीम शक्ति प्राप्त कर सकता है । हएक वैज्ञानिक अणशक्ति के प्रयोग द्वारा अपने स्थान पर बैठा आ ही, सि फैएक स्विच दबाकर, जापान जैसे एक देश को-जनपद को जीवनरहित कर सकता है तो तपोशक्ति (तेजोलेश्या) के प्रयोग से एक तपस्वी १६ जनपदों का विनाश करने की प्रचण्ड क्षमता रखे तो यह आश्चर्य की बात नहीं। यह तो सिर्फ एक उदाहरण है, तपोशक्ति का सिर्फ व्यावहारिक स्थूल रूप है; किन्तु इसका सूक्ष्म रूप अनन्त और असीमित शक्तिशाली है। उसका कारण यह है कि तेजस् शरीर का स्वामी एवं संचालक आत्मा भी तो अनंत शक्तिशाली है। तपोयोग द्वारा आत्मा की वही शक्ति, जो आवृत दशा में होती है, प्रगट हो जाती है। आत्म-शक्ति के प्रगटीकरण को प्रक्रिया और साधन है तप, तपोसाधना, तयोयोग साधना। जिस प्रकार सूर्य तथा अग्नि के ताप से बाह्य मल जलकर वस्तु शुद्ध हो जाती है, अपने निर्मल और वास्तविक रूप में आ जाती है। उसी प्रकार तप के ताप से आत्मा पर लगे कर्मगल, कर्मग्रन्थियाँ, राग-द्वेष आदि आन्तरिक दोष जल जाते हैं, परिणामस्वरूप कर्मदलिक (आवरण) झड़ जाते हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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