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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
सर्पिणी के रूप में सुषप्ति अवस्था में है। साधक इसे प्राणायाम द्वारा जाग्रत करता है। जाग्रत होकर यह ऊपर को चढ़ती है और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित शिव के साथ मिल जाती है। साधक सिद्ध हो जाता है ।
__ इसमें आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान-योग के इन अंगों को विशिष्ट महत्त्व प्रदान किया गया है । सम्पूर्ण साधना इन्हीं अंगों पर आधारित है।
जन अनुश्रुति के अनुसार इस सम्प्रदाय के लूहिया आदि ८४ सिद्ध हुए हैं । तन्त्रयोग
तन्त्रयोग काफी प्राचीन है। योगदर्शन जिस समय महर्षि पतंजलि द्वारा संकलित, संग्रहीत और लिपिबद्ध हुआ था उस समय भी तन्त्रयोग की प्रक्रियाएँ योगियों में प्रचलित थीं।
तन्त्रयोग में योग-साधना के आठ अंग माने जाते हैं। वे ही अंग पतंजलि द्वारा अष्टांगयोग रूप में प्रचलित हुए हैं। वे अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
तन्त्रयोग में यम १० माने गये हैं-(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य, (५) कृपा, (६) आर्जव, (७) क्षमा, (८) धृति, (६) मिताहार और (१०) शौच । इसी प्रकार नियम भी १० हैं-(१) तपः, (२) सन्तोष, (३) आस्तिक्य, (४) दान, (५) देव पूजा, (६) सिद्धान्त श्रवण (७) ह्री, (८) मति (६) जप और (१०) होम । यहाँ ह्री का अभिप्राय कुत्सित आचरण से मन में होने वाला कष्ट है।
इन यम-नियमों के पालन से पहले साधक को काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छः शत्रुओं को वश में करना अनिवार्य है।
शेष छह अग वही हैं, जो पतंजलि द्वारा प्रतिपादित हैं।
मध्य युग तक आते-आते और विशेष रूप से बंगाल प्रान्त में, इस तन्त्र में 'वाम' और 'कौल' शब्द और जुड़ गये । वाममार्ग कि गुरु-परम्परा से गुप्त रखा गया' अतः जनता में वाम-कौल तन्त्रयोग के बारे में भाँति-भाँति
१ प्रकाशात् सिद्धहानिः स्याद् वामाचारगतो प्रिये। अतो वाम पथं देवि, गोपायेत् मातृजारवत् ॥
-विश्वसार अर्थात् हे देवि ! वामाचार में साधन को प्रकाशित करने से सिद्धि की हानि होती है अतः वाममार्ग को माता के जार के समान गुप्त रखना चाहिए ।
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