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योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ३६ के भ्रम फैल गये; किन्तु सत्य स्थिति ऐसी नहीं है । इसके लिए पहले 'वाम' और 'कौल' शब्दों का अर्थ समझ लेना उपयुक्त होगा कि ये शब्द वहाँ किस रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं और इनका अभिप्राय क्या है ? 'वाम' शब्द का आशय बताते हुए दुर्गाचार्य ने कहा है
___ य एव हि प्रज्ञावन्तस्त एव हि प्रशस्या भवन्ति ।
-जो प्रज्ञावान (बुद्धिमान) हैं वे ही प्रशस्य हैं। प्रशस्य शब्द का अर्थ है प्रज्ञावान । प्रज्ञावान प्रशस्य योगी का नाम ही 'वाम' है।
'कौल' शब्द का अभिप्राय स्वच्छन्द शास्त्र में इस श्लोक द्वारा सूचित किया गया है
कुलं शक्तिरिति प्रोक्तमकुलं शिव उच्यते ।
कुलाकुलस्य सम्बन्धः कोलमित्यभिधीयते ॥ -'कुल' शब्द शक्ति का वाचक है और 'अकूल' शब्द शिव का; तथा कुल और अकुल के सम्बन्ध को कौल कहा जाता है।
वाममार्ग पर चलने का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त नहीं, इसके लिए साधक में कुछ विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक माना है ।
परद्रव्येषु योऽन्धश्च परस्त्रीषु नपुंसकः । परापवादे यो मुकः सर्वदा विजितेन्द्रियः ।। तस्यैव ब्राह्मणस्यात्र वामे स्यादधिकारिता ।
–मेरुतन्त्र -जो पर द्रव्य के लिए अन्धा है, परस्त्री के लिए नपुंसक है, दूसरों की निन्दा के लिए मूक यानी गूगा है और इन्द्रियों को अपने वश में रखता है-ऐसा ब्राह्मण वाममार्ग का अधिकारी होता है ।
तन्त्रयोग में मुख्य साधन दो माने गये हैं-भावना और कुल या कुण्डलिनी का ऊर्ध्व संचालन । भावना का महत्व प्रशित करते हुए कहा गया है
भावेन लमते सर्व भावेन देवदर्शनं । . भावेन परमं ज्ञानं, तस्माद् भावावलम्बनं ॥
-रुद्रयामल बहु जापात् तथा होमात् कायक्लेशादिविस्तरैः। न भावेन विना देवो यन्त्रमन्त्रफलप्रवः ॥
-भाव चूडामणि
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