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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
-भाव से सब कुछ प्राप्त होता है, भाव से ही देवदर्शन होता है और भाव से ही श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए भाव का आलम्बन लेना चाहिए।
-कितना ही जप किया जाय, होम किये जायें और शरीर को कितना ही कष्ट दिया जाय; किन्तु भाव के बिना देव-यन्त्र-मन्त्र फल नहीं देते।
___ अतः इस भाव सिद्धान्त के अनुसार ही तमोगुणी के लिए पशु-भाव को, रजोगुणी के लिए वीर-भाव की तथा सतोगुणी साधक के लिए दिव्य-भाव की साधना तन्त्रयोग (वाममार्ग) में बताई गई है।
___ तन्त्रयोग (वाममार्ग) का दूसरा साधन है-कुण्डलिनी ! कुण्डलिनी क्या है, यह बताते हुए श्री जॉन वुडरफ ने कहा है
Shortly stated Energy (Shakti) polarises itself into two forms, viz., Static or Potential (Kundalini) and Dynamic (Prana) the working forces of the body.
-Sir John Woodraffe--Shakti & Shakta अर्थात्-संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि शक्ति दो रूपों में प्रकट होती है; यथा-(१) स्थिर रूप में कुण्डलिनी और (२) चल अथवा गत्यात्मक रूप में प्राण (श्वासोच्छ्वास)।
श्री आर्थर एवलन के शब्दों में
'Kundalini is the static shakti. It is the individual bodily representive of the great Cosmic Power, which creates and sustains the universe.
-Arthur Avalon-The Serpent Power अर्थात्-कुण्डलिनी स्थिर शक्ति है। यह उस महान विश्वव्यापिनी शक्ति का व्यष्टि शरीरस्थित रूप है, जो विश्व की रचना करती है और उसे धारण करती है।
___ आगे तन्त्रयोग (वाममार्ग) की साधना हठयोग के समान ही है। वाममार्ग भी यही मानता है कि सपिणी के आकार की शक्ति मूलाधार चक्र में सोई पड़ी है और जब साधक विभिन्न यौगिक प्रक्रियाओं द्वारा इसे जाग्रत कर देता है तो यह ऊर्ध्व दिशा की ओर गति करती हई ब्रह्मरन्ध्र स्थित सहस्रार चक्र स्थित शिव से मिलन कर लेती है । यही साधक की सिद्धि है।
यम-नियम आदि इस सम्प्रदाय के वही हैं जो तन्त्रयोग और हठयोग
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