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________________ योग के विविध रूप और साधना-पद्धति ३७ हैं, उस ध्वनि को अनहद नाद कहा जाता है। योगी सिद्धासन से बैठकर और आँखों को अोन्मीलित करके दृष्टि को अन्तमुखी रखे तथा दायें कान से सदैव अन्तर्गत नाद को सुने । लययोग का मूलाधार प्रणव अथवा ॐ है। ॐ शब्द की रचना 'अ, उ, म्' इन तीन अक्षरों से हुई है। 'अ' मनोबिन्दु का सूचक है, 'उ' प्राणबिन्दु का और 'म्' अहंबिन्दु का।। योगी क्रमशः इन तीनों प्रकार के बिन्दुओं को गोपन करके तथा नाद सुनते-सुनते अपने स्वरूप में अवस्थित और लय हो जाता है, यही लययोग है। इस अवस्था में उसे अतीन्द्रिय और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव होता है। अस्पर्शयोग अस्पर्शयोग का अभिप्राय है-पाप-पुण्य, कर्म-अकर्म आदि सभी सांसारिक प्रवृत्तियों से अलिप्त रहना। आनन्दगिरि ने अस्पर्शयोग को विशुद्ध अद्वैत बताया है। ___अस्पर्शयोग को चर्चा गौड़पाद ने की है। वे ही इस योग के आविष्कर्ता माने जा सकते हैं। — अस्पर्शयोग बहुत कुछ अंशों में गीताकार द्वारा प्रतिपादित अनासक्तियोग ही है। अनासक्तियोग में भी कर्म और उसके फल के प्रति आसक्ति नहीं रखी जाती। आसक्ति के अभाव में आशा-तृष्णा का क्षय हो जाता है और फिर मुक्ति सुलभ हो जाती है। किन्तु स्वयं गौड़पाद के शब्दों में ही अस्पर्शयोग योगियों के लिए भी दुर्दर्श हैअस्पर्शयोगो वै नाम, दुर्दशः सर्वयोगिभिः । -गौड़पादीय कारिका ३६ इस दुर्दर्शता का कारण यह है कि अनादिकालीन अविद्या, मोह तथा आशा-तृष्णा के संस्कार बड़ी कठिनाई से छूटते हैं। ____ अस्पर्शयोग वस्तुतः मन का सांसारिक प्रवृत्तियों में निलिप्त होने का नाम है। साधक सांसारिक प्रवृत्तियाँ तो करता है किन्तु उनमें लिप्त नहीं होता; उनके प्रति उसकी तनिक भी आसक्ति नहीं होती। सिद्धयोग सिद्धयोग, हठयोग से मिलता-जुलता है। इस योग में कुण्डलिनी को विशेष महत्त्व प्राप्त है। कुण्डलिनी के पास ही मूलाधार चक्र के समीप शक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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