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________________ ३६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना प्रकति के इस खेल में रस ले रहा है, इसीलिए वह अपने को बन्धनग्रस्त समझता है। यदि वह रस लेना छोड़ दे तो मुक्त हो जाय। इसके लिए उसे अपने और प्रकृति के स्वभाव का ज्ञान करना चाहिए । ज्ञान प्राप्त होते ही वह प्रकृति के खेल में रस लेना बन्द कर देगा और मुक्त हो जायगा। इसीलिए सांख्यकारिका माठरवृत्ति में कहा गया है पंचविशतितत्त्वज्ञो, यत्र कुत्राश्रमे रतः । जटो मुण्डी शिखी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः ॥ ज्ञानयोग योग के अन्य किसी अंग पर जोर नहीं देता। इसका अभिप्राय तो सिर्फ 'आत्मानं विद्धि' ही है। इसी से ज्ञानयोगी आत्मा को मुक्ति मानता है। ज्ञानयोग तीव्र बुद्धि द्वारा अविद्या को नाश करना आवश्यक मानता है और कहता है कि अविद्या के नाश होने पर आत्मा का स्वरूप परिलक्षित हो जाता है। कर्मयोग कर्मयोग का अभिप्राय गीता के अनुसार कर्म करने का कौशल है'योगः कर्मसु कौशलं' । यहाँ कर्म को कुशलता का अभिप्राय ईश्वरार्पण बुद्धि से अपना कर्तव्य किये जाना है। ईश्वरार्पण बुद्धि के कारण मनुष्य में कर्म करने का अर्थात्-'मैंने यह कार्य किया है', 'मैंने सफलता प्राप्त की है', या 'मैं विफल हो गया हूँ' ऐसा हर्ष-विषाद तथा अहंकार नहीं होता, फलस्वरूप कर्म करते हुए भी मनुष्य समत्व भाव में रहता है और इस समत्व के कारण वह मुक्त हो जाता है। लययोग लययोग की चर्चा नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजोबिन्दु आदि उपनिषदों में प्राप्त होती है। वहाँ इसका काफी महत्व दिखाया गया है। लययोग का अभिप्राय यह है कि मनोबिन्दु, प्राणबिन्दु, अहंबिन्दु आदि बिन्द मात्र का और बिन्दु के बीजक रूप स्थूल, सूक्ष्म और अति स्थूल शब्द मात्र का स्वस्वरूपानुसन्धानपूर्वक संहार कर अर्थात् नादमय सारी भूमिकाओं को त्याग कर स्वरूप में स्थितिकर उसी में लीन हो जाना। यह मार्ग हठयोग की अपेक्षा सहज और सरल है । * नाद का अभिप्राय शब्द है । ऐसा माना जाता है कि सूक्ष्म शरीर के अन्दर स्थित अनाहत चक्र में अत्यन्त मधुर ध्वनि तरंगें सतत उठती रहती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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