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प्रेक्षाध्यान साधना
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(ब) मम से देखने-जानने का अभ्यास-शरीर के अन्दर, श्वास, संकल्पविकल्प, आवेग-संवेग इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें चर्मचक्षओं से देखना सम्भव ही नहीं है, वे तो मन की आँखों से-विवेक-नेत्रों और ज्ञान बक्षओं से ही देखेजाने जा सकते हैं । अतः इन्द्रियों की पराधीनता समाप्त हो जाती है और ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं, साधक ज्ञान-चक्षुओं से किसी भी वस्तु को देखनेजानने का अभ्यस्त हो जाता है। .
इस प्रकार प्रेक्षाध्यान की साधना, साधक के लिए बहुत ही लाभकारी है। इससे उसको राग-द्वेष की वृत्ति का संक्षय होता है, ज्ञाता-द्रष्टाभाव का विकास होता है और यदि एक रात वह अनिमेष-अपलक प्रेक्षा करने में सक्षम हो सके तो उसे कैवल्य की प्राप्ति तक हो सकती है।
वस्तुतः प्रेक्षाध्यान विचयध्यान (धर्मध्यान) का ही एक रूप है। इसे अन्त मानना साधक के लिए उचित नहीं है, यह तो आदि-बिन्दु ही है। किन्तु यह विस्तृतता की प्रवृत्ति रखता है। जिस प्रकार पानी पर तेल की बूंद फैल जाती है उसी प्रकार यह प्रेक्षाध्यान भी शरीर से आत्मा तक फैलाव कर लेता है, विस्तृत हो जाता है । यह इसका सर्वाधिक महत्त्व है। 00
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