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३५२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
घटना न घटे और मानव प्रकृति के नियमों के अनुकूल अपना जीवन यापन करे । किन्तु विवशता यह है कि सामाजिक परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि मानव प्रकृति के अनुसार अपना जीवन व्यवहार चला नहीं पाता, उसे अनेक प्रकार की पारिवारिक, सामाजिक व्यवस्थाएँ तथा परम्पराएँ घेरे रहती हैं. तथा विविध प्रकार की चिन्ताएँ लग जाती हैं, और इन चिन्ताओं के कारण वह अपने स्वास्थ्य को चौपट कर लेता है। शराबखोरी, जूआ, वेश्यागमन आदि व्यसन उसे लग जायें तो वह अन्दर से खोखला ही हो जाता है, अनेक रोग उसे घेर लेते हैं ।
तात्पर्य यह कि आधुनिक शरीरशास्त्री और प्राचीन चिकित्सा विशेषज्ञ - सभी एकमत से शारीरिक और मानसिक अस्वास्थ्य का कारण चिन्ता और व्यसन तथा प्रकृति के साथ अननुकूलन को मानते हैं ।
अध्यात्मशास्त्री इन कारणों को तो स्वीकार करता ही है किन्तु वह मानव के अस्वास्थ्य का मूल कारण - अध्यात्म- दोषों को मानता है । अध्यात्म - दोष हैं - राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ - कषायों के आवेग, भय, काम आदि के संवेग । अध्यात्मशास्त्री यह मानता है कि शारीरिकमानसिक अस्वास्थ्य और विभिन्न रोगों की उत्पत्ति सर्वप्रथम मानव के कार्मण शरीर (आत्मा से बद्ध अति सूक्ष्म शरीर ) में होती है, वहाँ से वह तेजस् शरीर (सूक्ष्म शरीर) में आती हैं और फिर औदारिक (स्थूल) शरीर में व्यक्त हो जाती है ।
आधुनिक परमनोविज्ञान शास्त्री भी ऐसा ही मानते हैं, उनकी दृष्टि अभी सूक्ष्म शरीर (तैजस् शरीर ) द्वारा निर्मित आभामंडल तक ही पहुँची है, अतः वे रोग का मूल कारण तेजस् शरीर को मानते हैं ।
प्रोफेसर जे० सी० ट्रस्ट ने परामनोविज्ञान के क्षेत्र में काफी काम किया है । वैज्ञानिक साधनों की सहायता से वे व्यक्ति के आभामंडल को देखने में सक्षम हैं । अतः उन्होंने अनेक मानसिक रोगियों का सफल उपचार भी किया है ।
एक बार उनके पास एक महिला आई । उसने अपनी शिकायत बताई - 'जब भी मैं गिरजाघर ( church) में जाती हूँ तो मेरे सारे शरीर में खुजली चलने लगती है, अनेक उपकार कराये हैं किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ ।'
ट्रस्ट ने देखा तो उन्हें उस महिला के आभामंडल में काले रंग के असंख्य:
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