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२०८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
शरीर से अभिव्यक्ति नहीं भी हो पाती तो वह तेजस् शरीर तक ही रह जाती है ।
कषायों के आवेग संवेग मानव मस्तिष्क और तेजस् शरीर में हलचल उत्पन्न कर देते हैं और यदि उनकी प्रबलता तीव्र हुई तो उथल-पुथल ही मचा देते हैं ।
मानसिक संकल्प - विकल्प प्रेक्षा में अभ्यस्त होने के उपरान्त साधक कषायों के आवेगों-संवेगों की प्रेक्षा करता है । वह अपने अवचेतन मन की प्रेक्षा करता है, उसे तटस्थ द्रष्टा बनकर देखता है तो चकित रह जाता है, कषायों का कितना भयंकर अंधड़ चल रहा है उसके अवचेतन मन में । यद्यपि उसका आसन स्थिर है, वाणी भी मौन है, मन में भी संकल्प-विकल्प अति न्यून हैं, उपशान्त हैं, मन-वचन-काय के योग भी शान्त जैसे दिखाई देते हैं, देखने वाले भी कहते हैं-साधक जी ! शान्तरस में निमग्न हैं; और कषाय- प्रेक्षा से पहले साधक भी अपने मन को शान्त समझता है; किन्तु कषायप्रेक्षा द्वारा ही वह अशान्ति के मूल राग-द्व ेष और कषायों तक पहुँचता है और आत्मिक अशान्ति के यथार्थ कारणों को समझता है ।
कषाय- प्रेक्षा के प्रभाव से साधक के कषाय-जनित आवेग संवेग उपशान्त होते हैं, साधक सच्ची आत्मिक शान्ति की ओर बढ़ता है ।
(५) अनिमेष - पुद्गल द्रव्य की प्रेक्षा भगवान महावीर की साधना के वर्णन के संदर्भ में आगमों में एक सूत्र आया है
१.
एग पोग्गलनिवि विठ्ठी' अर्थात् — एक पुद्गल -निविष्ट दृष्टि- यानी एक पुद्गल पर दृष्टि को स्थिर करना
किसी एक पुद्गल पर, भित्ति पर अथवा नासाग्र पर स्थिरतापूर्वक दृष्टि जमाकर अपलक देखते रहना अनिमेष-प्रेक्षा है ।
अनिमेष - प्रेक्षा, साधक के लिए, आगमों में बारहवीं भिक्षु प्रतिमा में तिहिव की गई है । इस प्रेक्षा के परिणाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं ।
१
(क) भगवती सूत्र श. ३, उ.२ ॥
(ख) एगपोगलठित्तीए दिट्ठीए - एक पुद्गलस्थितया दृष्ट्या ।
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— दशाश्रु तस्कन्ध, आयारदसा, सातवीं दशा, बारहवीं भिक्षुप्रतिमा
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