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________________ ३६२ जैन योग : सिमान्त और साधना है । परन्तु सम्पूर्ण 'सः' तथा 'अहम' पदों का लोप भी नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा करने से जीव की उस शुद्ध अवस्था का बोधक कोई शब्द हो नहीं रह जायगा। अतः 'तत्ता' तथा 'अहंता' के बोधक अंशों का ही त्याग हो सकता है। उस दशा में 'स' और 'अहं' का त्याग करने पर जीव के शुद्ध स्वरूप का बोधक शब्द होता है-ॐ। साधक भी जब तक भेदस्थिति में रहता है तभी तक वह 'सोऽहं का जप करता है और ज्योंही जप में तरतमता बनो, साधक की चित्तवृत्ति ध्येय से एकाकार हुई, अभेद स्थिति आई, त्योंहो उसके श्वासोच्छ्वास से स्वयं हो ॐ की ध्वनि निकलने लगाती है। अतः सोऽहं को जप 'ॐ' के जप-ध्यान और साधना की प्रारम्भिक अवस्था है । इसकी (सोऽहं) साधना भी साधक अपनी इच्छानुकूल रंगों के समन्वय के साथ करता है। अर्ह की साधना 'अहं' जैन धर्म दर्शन का विशिष्ट मन्त्र है । इसका योग एवं आत्मिक उन्नति की साधना में अत्यधिक महत्त्व है। इसका प्राण-शक्ति को जगाने में बहुत उपयोग है। इस मन्त्र की साधना द्वारा साधक की प्राणशक्ति शीघ्र ही जाग्रत हो जाती है, उसका प्राणिक शरीर (Electric body) शक्तिशाली बनता है और आज्ञाचक्र एवं मूलाधार चक्र जाग्रत हो जाते हैं। यह कर्मनिर्जरा में भी सहायक है, अतः आत्मिक उन्नति एवं आत्म-शुद्धि भी इस मन्त्र से होती है। इसके अतिरिक्त साधक को मानसिक एवं शारीरिक स्फूर्ति प्राप्त होती है, उसकी मेधा तीव्र होती है, मानसिक स्फुरणा होती है, अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है, चित्त की चंचलता समाप्त होकर एकाग्रता आती है। अतः प्राणिक शक्ति के जागरण और चित्त की एकाग्रता के लिए यह मन्त्र 'सोऽह' और 'ॐ' से भी अधिक प्रभावी है। जैन धर्म दर्शन और जैन मन्त्र ग्रन्थों में इसे अरिहंत परमेष्ठी का वाचक बताया गया है और इसकी काफी महिमा गाई गई है। 'अर्ह' का पद विन्यास 'अहं' का यदि वर्ण और अक्षरों की अपेक्षा से विन्यास किया जाय तो इसमें 'अ, र, ह, म्' ये चार वर्ण हैं । इनमें 'अ' वायु तत्त्व, 'र' अग्नि तत्त्व, 'ह' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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