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७८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
वे यम के चार भेदों में से इच्छायम और प्रवृत्तियम को साध चुके होते हैं तथा स्थिरयम और सिद्धियम को साधने में प्रयत्नशील रहते हैं । प्रवृत्तचक्रयोगी आठ गुणों से युक्त होता है । आठ गुण ये हैं(१) शुश्रूषा - सत् तत्त्व सुनने की तीव्र उत्कंठा ।
(२) श्रवण - अर्थ का मनन- - अनुसंधान करते हुए सावधानीपूर्वक तत्त्व सुनना ।
(३) सुने हुए को ग्रहण करना - अधिगृहीत करना ।
(४) धारण — ग्रहण किये हुए का संस्कार चित्त में जमाना ।
(५) विज्ञान - अवधारण करने के उपरान्त उसका विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) करना; प्राप्त बोध का दृढ़ संस्कार जमाना ।
(६) ईहा - चिन्तन, विमर्श, तर्क-वितर्क, शंका समाधान करना । (७) अपोह - तर्क-वितर्क, शंका-समाधान तथा चिन्तन मनन के उपरान्त बाधक अंश का निराकरण करना ।
(८) तत्वाभिनिवेश – अन्तःकरण में तत्त्व का निर्धारण करना । प्रवृत्तचक्रयोगी को तीनों अवंचकर स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। तीन अवंचक ये हैं - (१) योगावंचक (२) क्रियाऽवंचक और (३) फलावंचक ।
जिसके दर्शन से कल्याण एवं पुण्य की प्राप्ति होती है, ऐसे सद्गुरुओं का सुयोग योगावंचक है । उनका बंदन सत्कार सेवा आदि क्रियाऽवंचक है । इन समस्त शुभ क्रियाओं का फल जो अमोघ होता है, उसकी प्राप्ति फलावंचक है ।
इन तीनों अवंचकों में सर्वप्रथम प्रवृत्त योगी योगावंचक प्राप्त करता है और फिर उसे शेष दोनों अवंचक भी प्राप्त हो जाते हैं ।
१ यमाश्चतुर्विधा इच्छाप्रवृत्तिस्थैर्यसिद्धयः ।
- योगभेद द्वात्रिंशिका २५
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अवंचक का अभिप्राय सरलता ( वंचकतारहितता) है। जो कभी वंचना - प्रवंचना न करे, उलटा तिरछा न जाय कभी न चूके, बाण की तरह सीधा अपने लक्ष्य पर पहुँचे, उसे अवंचक कहा गया है ।
३ योगदृष्टिसमुच्चय ३४.
४ आद्यावंचकयोगाप्त्या तदन्यद्वयलाभिनः ।
एतेऽधिकारिणो योगप्रयोगस्येति तद्विदः ॥
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— योगदृष्टिसमुच्चय २१३
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