________________
जैन योग का स्वरूप
७६
- प्रवृत्तचक्रयोगी अपनी आत्मा की उन्नति के लिए यम-नियमों का पालन करता है तथा राग-द्वेष पर विजय प्राप्ति के सोपानों को एक के बाद एक पार करता जाता है।
(४) निष्पन्नयोगी-जिसका योग निष्पन्न हो चुका होता है अर्थात् पूर्ण हो गया होता है, वह निष्पन्नयोगी कहलाता है। ऐसा योगी सिद्धि के अति निकट होता है, इसलिए उसे धर्म-व्यापार की भी कोई जरूरत नहीं रहती । उसकी प्रवृत्ति सहज रूप में धर्ममय हो रहती है।
जैन योग और कुण्डलिनी जहाँ तक कुण्डलिनी (The Primal Power or Serpent Power) का संबंध है, इसका उल्लेख प्राचीन जैन शास्त्रों में नहीं मिलता । आगमों में तो इसकी चर्चा है ही नहीं, आचार्य हरिभद्र सरि के योग ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख नहीं है, जब कि हठयोग और तंत्रयोग का यह मुख्य विषय रहा है।
आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र और शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णव में कुछ ऐसी यौगिक क्रियाओं और साधनाओं का वर्णन अवश्य प्राप्त होता है जिनका सम्बन्ध कुण्डलिनी से है ।
___कुण्डलिनी का सर्वप्रथम उल्लेख मंत्रराजरहस्य' नामक ग्रंथ में मिलता है । नमस्कार स्वाध्याय में कुण्डलिनी के नवचक्र' बताये गये हैं(१) गुदा के मध्यभाग में आधार चक्र (२) लिंग मूल के पास स्वाधिष्ठान चक्र, (३) नाभि के पास मणिपूर चक्र, (४) हृदय के पास अनाहत चक्र, (५) कण्ठ के पास विशुद्धि चक्र, (६) घण्टिका के पास ललना चक्र, (७) भ्र चक्र के मध्य स्थित आज्ञा चक्र, (८) मूर्वा-तालु रंध्र में स्थित सहस्रार चक्र, (९) ब्रह्मरंध्र अथवा ऊर्ध्व भाग में स्थित सुषुम्ना चक्र ।
___यद्यपि इन चक्रों का तथा कुण्डलिनी का उल्लेख परवर्ती जैन शास्त्रों में मिलता अवश्य है किन्तु ऐसा मालूम होता है कि कुण्डलिनी का जैन योग में कोई विशेष महत्व नहीं रहा । उसका कारण यह है कि जैन योग का
१ यह ग्रंथ वि० सं० १३३३ में रचा गया है।-देखिए-जैन साहित्य का बृहद्
इतिहास, पृष्ठ ३१० २ गुदमध्य लिंगमूले नाभौ हृदि कण्ठघटिका भाले । . मूर्धन्यमूर्वे नवषटक (चक्र) ठान्ता पंच भाले युताः ।।
-नमस्कार स्वाध्याय (संस्कृत) पृ० १२१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org