________________
८०
जैन गोग : सिद्धान्त और साधना
लक्ष्य साधना में चमत्कार या प्रभाव पैदा करना नहीं होकर कर्म-मुक्तदशा को प्राप्त करना है । यहाँ साधना की चरम परिणति मोक्ष है।
प्राचीन जैन योग प्रक्रिया का अनुशीलन करने पर यह स्पष्ट कह सकते हैं कि 'कुण्डलिनी योग', जैन योग में 'तेजोलेश्या' के नाम से व्यवहृत हुआ है। क्योंकि जैसा स्वरूप जैन आगमों में तेजोलेश्या का बताया गया है, वैसा ही स्वरूप कुण्डलिनी शक्ति का हठयोग के ग्रन्थों में हैं ।
जैन आगमों में भगवान महावीर के जीवन का एक प्रसंग वर्णित है।
गोशालक ने भगवान महावीर से पूछा-भगवन् ! तेजोलेश्या की उपलब्धि कैसे हो सकती है ?
भगवान महावीर ने बताया-जो साधक निरन्तर दो-दो उपवास करता है, पारणे के दिन मुट्ठी भर उड़द खाता है और चुल्लू भर जल पीता है तथा भुजा ऊपर उठाकर सूर्य की आतापना लेता है, उसे छह महीने में तेजोलेश्या की प्राप्ति हो जाती है।'
तेजोलेश्या की प्राप्ति के दो साधन हैं--(१) जल और अन्न को अति सीमित मात्रा लेकर तपस्या करना तथा (२) सूर्य की आतापना लेना-सूर्य से शक्ति ग्रहण करना।
वस्तुतः तेजोलेश्या का स्थान तेजस शरीर है। हठयोग विशारदों ने भी कुण्डलिनी का स्थान सूक्ष्म शरीर (Etheric body) माना है।
जिस प्रकार तेजोलेश्या-सिद्ध योगी में अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है, शाप और वरदान की असीम सामर्थ्य होती है वैसी कुण्डलिनी-सिद्ध योगी में भी होती है । तेजोलेश्या भी प्रचण्डशक्ति है और कुण्डलिनी-शक्ति भी ऐसी ही है। तेजोलेश्या योगी के शरीर से निकलती है तो सूर्य का सा तीव्र प्रकाश और अग्नि-सी दाह उत्पन्न करती है, वैसा ही प्रभाव कुण्डलिनी शक्ति का है-योगी कोटि सूर्यप्रभा के समान प्रकाश देखता है।
तेजोलेश्या का एक दूसरा रूप भी है, वह है शीतल-लेश्या । जैन परम्परा के अनुसार वह उसी योगी को प्राप्त होती है जिसकी वासनाएँ (कषाय) क्षीण हो चुकी हैं। इसका प्रभाव शीतलतादायक होता है।
हठयोग के ग्रन्थों के अनुसार भी जब वासना-मुक्त (passion proof) योगी की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सहस्रार चक्र में पहुँचती है और १ तेजोलेश्या का अभिप्राय यहाँ तेजोलब्धि है। २ भगवती सूत्र, शतक १५, सूत्र ७६ (अंगसुत्ताणि) ।
-सम्पादक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org