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________________ जैन योग का स्वरूप ७७ (१) कुलयोगी–जो योगियों के कुल में जन्मे हैं, जो प्रकृति से योगधर्मा हैं-योगमार्ग का अनुसरण करने वाले हैं, वे कुलयोगी' कहलाते हैं । वे कुलयोगी किसी से भी द्वष नहीं रखते, देव-गुरु-धर्म उन्हें स्वभाव से ही प्रिय होते हैं तथा ये दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध और जितेन्द्रिय होते हैं। (२) गोत्रयोगी-आर्य क्षेत्र के अन्तर्गत भारत भूमि में जन्म लेने वाले मनुष्य भूमि भव्य कहे जाते हैं, इन्हें गोत्रयोगी भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि भारत भूमि में योग साधना के अनुकूल साधन, निमित्त आदि सहज ही उपलब्ध होते रहे हैं। किन्तु केवल भूमि की भव्यता और साधनों की सुलभता से ही योग साधना नहीं सधती, वह तो साधक की अपनो भव्यता, योग्यता और सुपात्रता से ही सिद्ध होती है। · गोत्रयोगी में ऐसी सुपात्रता नहीं होती। साधन सहज ही प्राप्त होने पर भी वह यम-नियम का पालन नहीं करता, उसकी प्रवृत्ति संसाराभिमुखी होती है । अतः ऐसे मनुष्य को योग का अधिकारी नहीं माना गया है । (३) प्रवृतपयोगी —जिस प्रकार चक्र के किसी भाग पर डंडा सटा कर घुमा देने से वह पूरा का पूरा धूमने लगता है, उसी प्रकार जिन मनुष्यों के किसी भी अंग से योग चक्र का स्पर्श होते ही, वे योग में प्रवृत्त हो जाते हैं, उन्हें प्रवृत्तचक्रयोगी कहा जाता है। १ योगदृष्टिसमुच्चय २१०,२११ २ वस्तुतः कुलयोगी शब्द विशिष्ट अर्थ लिये हुए है । साधारणतया ऐसा देखने में नहीं आता कि योगी का पुत्र भी योगी हो अथवा किसी की कुल परम्परा हो योगियों की रही हो । अतः कुलयोगी शब्द को साधनानिष्ठ, योगपरायण पुरुषों की परम्परा से सम्बद्ध माना जाना चाहिए। ऐसे साधक जन्म, वंशानुगति, वंश परम्परा से भिन्न-भिन्न भी हो सकते हैं। कुलयोगी शब्द से गुरु-शिष्य परम्परा का आशय भी लिया जा सकता है कि योगी गुरु का शिष्य भी योगी होता है। लोक में गुरु को पिता कहा भी जाता है । यद्यपि गुरु शिष्य का जनक (जन्म देने वाला पिता) नहीं होता किन्तु शिष्य के जीवन का निर्माण करने वाला, उसे सुसंस्कारी बनाने वाला गुरु ही होता है । इस अपेक्षा से भी कुलयोगी शब्द का आशय समझा जा सकता है। ३ योगदृष्टि समुच्चय २१० ४ योगदृष्टिसमुच्चय २१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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