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________________ ७६ जन योग : सिद्धान्त और साधना यह दृष्टि परम वीतराग भाव रूप स्थिति को प्राप्त कराने वाली है। इस दृष्टि वाले योगी की अन्तरवत्तियाँ प्रशान्तरसवाही हो जाती हैं। (८) पराष्टि'-यह योग की आठवीं और अन्तिम दृष्टि है। यह परा नाम की योगदृष्टि समाधिनिष्ठ होती है। यहाँ अष्टांग योग का आठवाँ अंग 'समाधि'२ (चित्त का ध्येयाकार रूप में परिणमन) सध जाता है। इसमें आसंग दोष (किसी एक ही योगक्रिया में आसक्ति) नहीं रहता। इस दृष्टि में संस्थित योगी शुद्ध आत्मतत्त्व, आत्मस्वरूप जिस प्रकार अनुभूति में आए वैसी प्रवृत्ति या आचरण में सहज रूप से गतिमान रहता है। उसके चित्त में किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करने की इच्छा, कामना या वासना नहीं रहती है । उसका चित्त प्रवृत्ति से ऊपर उठा हुआ होता है । इस दृष्टि में स्थित साधक आचार अथवा कल्प मर्यादा से भी ऊपर उठा हुआ होता है। किसी भी प्रकार के परम्परागत आचरण के अनुसरण का वहाँ प्रयोजन भी नहीं रहता। वह महान् योगी धर्मसंन्यास-शुद्ध दृष्टि से तात्त्विक आचरणमूलक, नैश्चयिक शुद्ध व्यवहारमय विशिष्ट योग-योगसंन्यास द्वारा अपने को कृतकृत्य कर लेता है। इसके उपरान्त वह योगी अयोग अवस्था प्राप्त करके मुक्त हो जाता है, मोक्ष स्थान में जा विराजता है । इन आठ योगदृष्टियों के विवेचन से स्पष्ट है कि पातंजल योग वणित समस्त अष्टांगयोग (योग के आठों अंग) इन योगदृष्टियों में समाहित हो जाते हैं। जैन योग की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित ये योगदृष्टियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इनमें जैन मोक्षमार्ग- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का सार निहित है । विस्तृत अध्ययन के जिज्ञासु उनके ग्रन्थों का परिशीलन करें। योगियों के भेद आचार्य हरिभद्र ने चार प्रकार के योगी बताये हैं—(१) कुलयोगी, (२) गोत्रयोगी, (३) प्रवृत्तचक्रयोगी और (४) निष्पन्नयोगी। Mr Mr १ योगदृष्टिसमुच्चय १७८-१८६ २ तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः । ३ योगदृष्टिसमुच्चय २०८ -पातंजल योगसूत्र ३/३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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