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________________ जैन योग का स्वरूप ७५ इस सतत आत्मानुभव का परिणाम यह होता है कि उस योगी की आत्मभावना अत्यन्त दृढ़ हो जाती है, वह सहजरूप से सतत आत्मभाव में रमा रहता है । वह सांसारिक भोग-उपभोगों को अनासक्त भाव से भोगता है, इसलिए उसके भोग आगे बन्धन तथा भवभ्रमण के हेतु नहीं होते, उनसे प्रगाढ़ कर्मबन्धन नहीं होता । उसके राग-द्वेष अत्यल्प होते हैं, हृदय हिम के समान शीतल हो जाता है, वृत्तियाँ बहुत कुछ उपशान्त हो जाती हैं। उपशम भाव से उसके व्यक्तित्व में ऐसी विशिष्टता उत्पन्न हो जाती है कि उसके सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र, सदाचार का प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ता है, उसके व्यक्तित्व की उत्कृष्टता अन्य लोगों के लिए भी प्रीतिकर होती है, वे लोग उसके प्रति द्वेष-भाव न रखकर प्रेम रखते हैं । कान्तादृष्टियुक्त योगी के अष्टांग योग का छठा अंग 'धारणा'" सधता है । धारणानिष्ठ हो जाने पर वह आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य विषयों में रस नहीं लेता । सूक्ष्म बोध उसे स्थिरादृष्टि में प्राप्त हो ही जाता है, अतः वह इस स्थिति में (कान्तादृष्टि में) आत्मतत्त्वविषयक चिन्तन, मनन, निदिध्यासनमूलक मीमांसा करता है, आत्मविचारणा और सद्गुणविचारणा में तल्लीन रहता है । इसके फलस्वरूप उसको आत्मा उत्कर्ष को प्राप्त होती है । उसका आत्महित - श्रेयस् उत्तरोत्तर सधता जाता ह । (७) प्रभावृष्टि – प्रभादृष्टि में प्रायशः ध्यान की प्रमुखता है । इस ट से सम्पन्न योगी प्रायः ध्याननिरत रहता है अर्थात् इसमें अष्टांग योग का सातवाँ अंग ध्यान - ध्येय में एकतानता - चित्तवृत्ति का एकाग्र भाव सफल होता है । ध्यान सोपानस्थित योगी यहाँ ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेता है कि राग, द्वेष, मोहरूप - त्रिदोषजन्य भावरोग यहाँ उसके लिए बाधक नहीं बन पाते। वह तत्त्वानुभूति का गहरा रस अनुभव प्राप्त कर लेता है और सत्प्रवृत्तियों की ओर उसका सहज ही झुकाव हो जाता है । इस दृष्टि में स्थित साधक असंगानुष्ठान (सभी प्रकार के संग - आसक्ति या संस्पर्शरहित विशुद्ध आत्मानुचरण) को शीघ्र साध लेता है । -- पातंजल योगसूत्र ३ / १ - पातंजल योगसूत्र ३ / २ १ देशबन्धश्चित्तस्य धारणा । ३ योगदृष्टिसमुच्चय १७०, १७१,१७७ तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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