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________________ ७४ जन योग : सिद्धान्त और साधना इस दृष्टि में स्थित साधक की मिथ्यात्व ग्रंथि का भेदन हो जाता है, उसको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। परिणामस्वरूप उसे संसार के सभी सुख-भोग क्षणभंगुर मालूम होते हैं और वह आत्मा को ही उपादेय, अजर-अमर मानता है। स्थिरादृष्टि रत्नप्रभा के तुल्य (सदा एक समान ज्योति) देदीप्यमान रहती है। स्थिरादृष्टि दो प्रकार की होती है-(१) सातिचार और (२) निरतिचार । निरतिचार दृष्टि में अतिचार, दोष और विघ्न नहीं होते । उसमें होने वाला दर्शन (सम्यग्दर्शन) नित्य एक सा अवस्थित रहता है। जिस प्रकार निर्मल रत्नप्रभा सदा एक समान ही दीप्तिमयी रहती है, वैसी ही स्थिति इस निरतिचार स्थिरादृष्टि की होती है। कर्मग्रंथ की भाषा में इसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। सातिचार स्थिरादृष्टि में होने वाला दर्शन (सम्यग्दर्शन) अतिचार सहित होता है, वह एक-सा अवस्थित नहीं रहता, न्यूनाधिक भी होता रहता है । सातिचार स्थिरादृष्टि की स्थिति मलसहित रत्नप्रभा के समान होती है। जिस प्रकार मल के कारण रत्न की प्रभा कम-अधिक होती रहती है किन्तु मिटती नहीं; उसी प्रकार स्थिरादृष्टि में भी छोटे-मोटे दोष लगते रहते हैं; किन्तु इसकी दर्शन सम्बन्धी स्थिरता का नाश नहीं होता। कर्मग्रंथ की भाषा में यह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है, जिसमें चलमल-अगाढ़ दोष तो लगते रहते हैं; किन्तु सम्यक्त्व छूटता नहीं। . सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ इसी पाँचवीं दृष्टि से होता है। जीव भेदविज्ञानी होकर आत्मा के स्वभाव और पर-भावों को, शरीर, धन-सम्पत्ति, पुत्र-पुत्री आदि को स्वयं से भिन्न मानने लगता है। (६) कान्तादृष्टि'-कान्तादृष्टि में साधक को अविच्छिन्न सम्यक् दर्शन रहता है । जिस प्रकार कान्ता (पतिव्रता स्त्री) घर के अन्य सभी काम करते हुए, उसका हृदय सदैव अपने पति में लगा रहता है, उसी प्रकार कान्तादृष्टि वाला योगी संसार के अन्य सभी कार्य करता है किन्तु उसका हृदय सदैव अपनी आत्मा में लगा रहता है, वह आत्मानुभव करता रहता है। १ योगदृष्टिसमुच्चय १६२-१६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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