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________________ जन योग का स्वरूप ७३ निमग्न हो जाता हैं, वह योग से हटता नहीं, अन्यत्र जाता नहीं। दोप्रादृष्टि में स्थित साधक केवल कानों से सुनता ही नहीं, वरन् हृदयंगम भी करता रहता है उसके अन्दर अन्तर्ग्राहकता का भाव उदित हो जाता है; किन्तु सूक्ष्म बोध अधिगत करना अभी शेष रह जाता है। __ वह साधक धर्म को अपने प्राणों से भी अधिक मानता है । वह सदाचार के प्रति निष्ठा ही नहीं रखना, वरन् उसको आचरण में भी लाता है। उसके चित्त की शांति बढ़ने लगती है। दीप्रादृष्टि में स्थित साधक को संसार के भोग खारे पानी के समान अप्रिय लगते हैं और तत्त्वश्रवण अमृत के समान । (५) स्थिराष्टि'-स्थिरादृष्टि में दर्शन (सम्यग्दर्शन) नहीं गिरने वाला अर्थात अप्रतिपाती हो जाता है। इसमें प्रत्याहार सधता है अर्थात् स्व-स्व विषयों के सम्बन्ध से विरत होकर इन्द्रियाँ चित्तस्वरूपाकार हो जाती हैं तथा साधक जो भी क्रिया-कलाप करता है, वह भ्रान्तिरहित, निर्दोष एवं सूक्ष्म बोधयुक्त होते हैं। विशेष-पातंजल योगसूत्र के समान जैन आचार्यों ने प्राणायाम को केवल श्वास-प्रश्वास-नियमन तक ही सीमित नहीं रखा है, वरन् उस पर गहराई से चिन्तन किया है। श्वास-प्रश्वासनिरोध या नियमन तो प्राणायाम का केवल भौतिक रूप है, केवल मात्र बाहरी। जैन आचार्यों ने प्राणायाम को केवल रेचक (श्वास को बाहर निकालना), पूरक (भीतर खींचना) और कुम्भक (अन्दर रोके रखना)--इतना नहीं माना, वरन् इसका अध्यात्मपरक रूप भी बताया है। रेचक (बाह्यभाव आत्म-विरोधो या परभावों को बाहर निकालना), पूरक (अन्तरात्मभाव-आत्मस्वरूपानुप्रत्यय को भीतर भरना) तथा कुम्भक (अन्ततम को आत्मचिन्तन, आत्मगुणों से आपूर्ण करना तथा उन भावों को स्थिर किये रहना)-यह भाव-प्राणायाम है। इस अध्यात्मपरक भाव प्राणायाम का मोक्षमार्ग में अत्यधिक महत्व है । इस भाव प्राणायाम के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। श्वासप्राणायाम से शरीर एवं चित्त की स्थिरता बढ़ती है और इस भाव-प्राणायाम से मन की निर्मलता तथा विशिष्ट आत्मानुभूति होती है । १ योगदृष्टि समुच्चय १५४-१६१ २ स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । -पातंजल योगसूत्र २/५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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