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७२ जन योग : सिद्धान्त और साधना उसके खेद नाम का दोष टल जाता है । जो लोग देवकार्य आदि नहीं करते, उनके प्रति उसे मत्सर-द्वेष नहीं होता।
(२) ताराष्टि'-तारादृष्टि में मित्रादृष्टि की अपेक्षा बोध कुछ अधिक स्पष्ट होता है।
__ यहां पातंजल योग द्वारा निदिष्ट योग का द्वितीय अंग नियम सधता है-अर्थात् शौच, तप, सन्तोष, स्वाध्याय, तथा परमात्म-चिन्तन जीवन में फलित होते हैं । अतः इस दृष्टि की तुलना अष्टांग योग के दूसरे अंग 'नियम' से की जा सकती है।
__ इस दृष्टि में स्थित साधक के हृदय में आत्महितकर प्रवृत्ति में अनूद्वग, उत्साह तथा तत्त्वोन्मुखी जिज्ञासा उत्पन्न होती है ।
(३) बेलादृष्टि--बलादृष्टि में सुखासनयुक्त दृढ दर्शन-सद्बोध प्राप्त होता है, परम तत्त्व-श्रवण करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है तथा योग साधना में चित्त-विक्षेप-दोष समाप्त हो जाता है।
यहाँ पातंजल अष्टांग योग का तीसरा अंग 'आसन'४ सधता है। सुखासन का अभिप्राय उस आसन से हैं, जिसमें योगी सुखपूर्वक शान्ति से बैठ सके, उसके ध्यान में विक्षेप न हो और ध्यान में चित्त स्थिर रहे।
बलादृष्टि के आजाने पर साधक की तष्णा कम हो जाती है। उसके जीवन में उतावलापन कम होकर स्थिरता बढ़ जाती है। वह अपने शुर्भ समारम्भमय उपक्रम में कुशलता प्राप्त करता जाता है। अपने अन्तर हृदय में उल्लास अनुभव करने लगता है और तत्त्वजिज्ञासा प्रबल होती है फलतः वह महान आत्मा अभ्युदय में संलग्न होता है।
(४) दोप्रादृष्टि'—यहाँ प्राणायाम सधता है। यहाँ अन्तरतम में ऐसे प्रशांत रस का सहज प्रवाह बहता रहता है कि साधक का चित्त उसी में
१ योगदृष्टिसमुच्चय, ४१-४८ २ शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। -पातंजल योगसूत्र २/३२ ३ योगदृष्टिसमुच्चय, ४६-५६ ४ स्थिरसुखमासनम् ।
--पातंजल योगसूत्र २/४६ ५ योगदृष्टिसमुच्चय, ५७-५८ ६ तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ।
-पातंजल योगसूत्र २/४६
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