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जैन योग का स्वरूप
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है । इसी अवस्था में आत्मा मुक्ति प्राप्त करती है, आत्मा के सिवाय सब कुछ छूट जाता है । अतः यह अवस्था ही सर्वोत्तम योग है ।"
योगदृष्टियाँ
इन तीनों योगों - इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग का सीधा आधार लिये बिना, किन्तु उन्हीं से विशेष रूप से निःसृत, उसी भावधारा से उद्भुत दृष्टियाँ — योगदृष्टियाँ हैं । ये सामान्यतः आठ है - (१) मित्रा, (२) तारा, (३) बला, (४) दीप्रा, (५) स्थिरा, (६) कांता, (७) प्रभा और (८) परा । 2
संसारपतित दृष्टि - सामान्य दृष्टि अथवा ओघदृष्टि से ऊपर उठकर साधक इन योगदृष्टियों में पहुँचता है ।
(१) मित्राट - यह प्रथम योगदृष्टि है । इस दृष्टि के फलस्वरूप साधक के हृदय में प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव बढ़ने लगता है । वह धार्मिक क्रियाओं को करता तो है किन्तु प्रथा के रूप में करता है । अहिंसा आदि का पालन वह चित्त की मलिनता कम करने की दृष्टि से नहीं; वरन् शुभ कर्मों की दृष्टि से करता है । उसकी विचारधारा यह होती है कि अहिंसा आदि के पालन से पुण्योपार्जन तो होगा ही ।
इसमें राग-द्व ेष हल्के होते हैं । दुःखी प्राणियों के प्रति दया व मैत्री के भाव जगते हैं । इसमें जो बोध होता हे वह चिनगारी के समान क्षणिक होता है । वह इष्ट-अनिष्ट और हेय - उपादेय का निर्णय नहीं कर पाता ।
मित्रादृष्टि में स्थित साधक पातंजल योगसूत्र में निर्दिष्ट योग के प्रथम अंग यम के प्रारम्भिक अभ्यास - इच्छादि यम (यम के अभ्यासगत भेद - इच्छायम, प्रवृत्तियम, स्थिरयम और सिद्धियम) को प्राप्त कर लेता है । अतः इस दृष्टि की तुलना पातंजल योग के प्रथम अंग 'यम' से की जा सकती है ।
साधक देवकार्य, गुरुकार्य, धर्मकार्य में अखेद भाव से लगा रहता है ।
१ योग दृष्टिसमुच्चय, ११ ( अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः 1 ) तथा अध्यात्मतत्त्व लोक ७/१२
२२ योगदृष्टिसमुच्चय, १२-१३
३ वही, २१-४०
४ अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमः ।
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- पातंजल योगसूत्र २ / ३०
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