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योग को आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १०७ लाभमद, (५) ज्ञानमद, (६) तपमद, (७) रूपमद, (८) ऐश्वर्यमद या प्रभुत्वमद । इन मदों को करना सम्यक्त्व में दोष लगाना है।
(३) छह अनायतन-(१) मिथ्यादर्शन, (२) मिथ्याज्ञान, (३) मिथ्याचारित्र, (४) मिथ्यादृष्टि, (५) मिथ्याज्ञानी, (५) मिथ्याचारित्री-ये छह अनायतन कहलाते हैं । इनको त्याग देना चाहिए।
___ (४) आठ दोष हैं-(१) शंका, (२) कांक्षा, (३) विचिकित्सा, (४) मूढ़दृष्टित्व, (५) अनुपगृहन, (६) अस्थिरीकरण, (७) अवात्सल्य और (८) अप्रभावना । इन दोषों से सम्यक्त्व को मुक्त रखना आवश्यक है।
___ इन दोषों के विपरीत सम्यक्त्व के आठ गुण हैं-(१) निःशंकित्व, (२) निष्कांक्षित्व, (३) निविचिकित्सा, (४) अमूढ़दृष्टित्व, (५) उपबहण या उपगृहन, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना। इन गुणों से सम्यक्त्व की चमक और बढ़ जाती है।
किसी भी कार्य में सफलता प्राप्ति में शंका बहत बड़ी बाधा है। इससे व्यक्ति का मनोबल क्षीण हो जाता है और उसका पतन हो जाता है, इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया हैवितिगिछा समावणेण अप्पाणं णो लमति समाधि ।
-आचारांग अ० ५, उद्देशक ५ -अर्थात्-संशयग्रस्त आत्मा को समाधि प्राप्त नहीं होती।
इसलिए सम्यग्दर्शन को शुद्ध एवं दृढ़ बनाये रखने के हेतु इसके २५ मल-दोषों का टालना और गुणों को अपनाना अति आवश्यक है।
त्याग-योग के साधक के लिए शुद्ध श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) के अतिरिक्त दूसरा आवश्यक गुण त्याग है। जब तक साधक में त्यागवृत्ति का उदय नहीं होता वह योग के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकता। त्यागवृत्ति-श्रद्धा का क्रियात्मक रूप है।
त्यागवृत्ति में एषणाओं' का त्याग ही प्रधान है । एषणाएँ तीन हैं(१) लोकषणा, (२) पुत्रषणा और (३) धनादि की एषणा । इन तीनों ही एषणाओं का त्याग आवश्यक है क्योंकि इनसे योगविघातक विषय-कषायों को पोषण मिलता है।
१ एषणा का अर्थ इच्छा, अभिलाषा है । २ णो लोगस्सेसणं चरे।
-आचारांग अ० ४, उ०१, सूत्र २२६.
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