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________________ १०६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (४) अनुकम्पा-दुःखी जीवों पर दया, निःस्वार्थ भाव से उनके दुःख दूर करने की इच्छा और तदनुसार प्रयास करना । (५) आस्तिक्य–सर्वज्ञकथित तत्त्वों में किंचित् मात्र शंका न करके पूर्ण विश्वास रखना-अटल आस्था; अथवा आत्मा एवं लोक सत्ता में पूर्ण विश्वास करना। आस्तिक्य गुण का धारी पुरुष आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है' अर्थात् इन सभी विषयों के बारे जैसा सर्वज्ञ ने कहा है, वैसा ही यथातथ्य विश्वास करता है। इन पाँच लक्षणों से आत्मगत सम्यक्त्व की पहचान होती है अर्थात् ये पांचों लक्षण सम्यग्दर्शन के परिचायक हैं। ये लक्षण व्यक्ति के लिए अपने सम्यक्त्व को परखने की कसौटी भी हैं। इस कसौटी पर कसकर साधक स्वयं अपनी पहचान भी कर सकता है कि वह सम्यक्त्वी है भी या नहीं। विशुद्ध सम्यग्दर्शन के लिए उसके २५ मल-दोषों का त्यागना आवश्यक है । ये पच्चीस दोष हैं मूढत्रयं मदश्चाष्टौ, तथा अनायतानि षट् । अष्टौ शंकादयश्चेति दृग्दोषाः पंचविंशतिः ॥ -उपासकाध्ययन २१/२४१ अर्थात्-तीन मूढ़ताएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंका आदि दोष-ये सम्यग्दर्शन के २५ मल अथवा दोष हैं जो सम्यक्त्व को मलिन करते हैं। - (१) तीन मूढ़ताएं-(क) देवमूढ़ता-रागी-द्वेषी देवों की पूजा-उपासना करना। (ख) गुरुमूढ़ता-निन्द्य आचरण वाले तथाकथित ढोंगी साधुओं, जिनमें परिग्रह आदि अनेक दोष हों, उन्हें गुरु मानना । (ग) शास्त्रमूढ़ता-काम-क्रोध आदि कषाय बढ़ाने वाले शास्त्रों को सत्शास्त्र मानना। इसका दूसरा नाम लोकमूढ़ता भी है, इसका आशय है कि लोगों की देखा-देखी गलत परम्पराओं का अनुकरण करना। (२) मद आठ हैं-(१) जातिमद, (२) कुलमद, (३) बलमद, (४) १ से आयावई, लोयावाई, कम्मावाई, किरियावाई। -आचारांग २/१/५ इस विषय के विस्तृत विवेचन के लिए देखिए-श्री जैन तत्व कलिका, (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), छठी कलिका, पृष्ठ १०५-२०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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