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________________ एक अवलोकन 'योग' वर्तमान विश्व का सर्वाधिक उपयोगी विषय है। विज्ञान के द्वारा नितनई उपलब्धियाँ प्राप्त करने के पश्चात भी मानव का अन्तर्मानस व्यथित है। उसे यह अनुभव हो रहा है कि जो उसे प्राप्त होना चाहिये था वह उसे आज तक प्राप्त नहीं हुआ है । भौतिक सुख-सुविधाओं के अम्बार लगने पर भी मन में शान्ति नहीं है । सामाजिक सुरक्षा और उच्च शैक्षणिक योग्यता प्राप्त करने के बावजूद भी अन्तर में गहरी रिक्तता है । आज का मानव शांति का पिपासु है, शांति के अभाव में वह स्वयं टूटता जा रहा है । आज जितने अविकसित देश-निवासी व्यक्ति व्यथित नहीं हैं उनसे कहीं अधिक पीड़ित हैं सभ्य और विकसित, शिक्षित देशों के निवासी। शारीरिक दृष्टि से नहीं अपितु मानसिक दृष्टि से वे संत्रस्त हैं; उनमें स्नायविक तनाव इतना अधिक है कि नशीली वस्तुओं का उपयोग करने पर भी नींद का अभाव है । वे जीवन से हताश-निराश होकर अब योग की ओर आकर्षित हुए हैं; उन्हें लग रहा है कि भोग से नहीं योग से ही हमें सच्ची शांति प्राप्त होगी। सचमुच योग जीवन का विज्ञान है; वह जीवन के छिपे हुए रहस्यों को खोजता है खोलता है। स्वस्थ जीवन, संतुलित मन और जागृत आत्मशक्तियों को अधिकाधिक विकसित करता है । संक्षेप में योग साधना की वह पद्धति है जिसमें आचार की पवित्रता, विचारों की निर्मलता, ध्यान की दिव्यता और तप की भव्यता है। योग का लक्ष्य है मनोविकारों पर विजय-वैजयन्ती फहरा कर आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करना । भले ही परम्परा की दृष्टि से शब्दों में भिन्नता रही हो, भाषा और परिभाषा में अन्तर रहा हो, किन्तु जहाँ तक तथ्यों का प्रश्न है वहाँ कोई अन्तर नहीं है । उपनिषद् साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर सहज ही ज्ञात होता है कि ब्रह्म के साथ साक्षात् कराने वाली क्रिया योग है, तो श्रीमद्गीताकार के अनुसार कर्म करने की कुशलता योग है । आचार्य पतञ्जलि के मन्तव्यानुसार चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है । बौद्ध दृष्टि से बोधिसत्व की उपलब्धि कराने वाला योग है तो जैन दृष्टि से आत्मा की शुद्धि कराने वाली क्रिया योग है । इस प्रकार आत्मा का उत्तरोत्तर विकास करने वाली साधना पद्धति योग के रूप में विश्रुत रही है। चित्त की वृत्तियाँ मानव को भटकाती हैं और योग चित्तवत्तियों की उच्छृखलता को नियंत्रित करता है । वह उन वृत्तियों को परिष्कृत और परिमार्जित करता है । जब योग सधता है तब विवेक का तृतीय नेत्र समुद्घाटित हो जाता है जिससे विकार और वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं । उस साधक का जीवन पवित्र बन जाता है । यह स्मरण रखना होगा कि योग वाणी का विलास वहीं है और न कमनीय कल्पना की गगनचुम्बी उड़ान ही है और न ही दर्शन की पेचीदी पहेली है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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