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________________ पन्धिमेदयोग साधना १८७ कभी अहंकार की आँधी साधक के चेतना प्रवाह को उड़ा ले जाने का प्रयत्न करती है तो कभी ममकार का अंधड़ चलता है; कभी अज्ञान का अन्धकार घटाटोप हो जाता है तो कभी संशय सामने आकर उसे दोलायमान करने लगता है, कभी उसकी एकान्त मान्यताएँ अन्य पक्षों की मान्यताओं के प्रति आक्रोश रूप में आकर उपस्थित हो जाती हैं। उस समय साधक का दृष्टिकोण व्यापक होना चाहिए, उसे अनेकान्त का ज्ञान होना चाहिए तथा उस पर यकीन भी; तभी वह इन सब राग-द्वेष को सेना पर विजय प्राप्त करके अपनी श्रद्धा को सम्यक् बना सकता है। ग्रंथिभेद की साधना में तीन स्थितियां होती हैं, जिन्हें कर्मग्रंथों की भाषा में करण कहते हैं-(१) यथापूर्वकरण (२) अपूर्वकरण और (३) अनिवृत्तिकरण। प्रथम करण की स्थिति में साधक मिथ्यात्व की ग्रंथि तक पहुँचता है, किन्तु उसकी भीषणता देखकर वापिस लौट जाता है, उसके आत्म-परिणाम बिना संघर्ष किये ही मिथ्यात्व से पुनः प्रस्त हो जाते हैं। द्वितीय करण की स्थिति में साधक राग-द्वेष-मोह आदि मनोविकारों और ग्रंथियों से संघर्ष करता है। किन्तु उसके आत्म-परिणाम इतने बलशाली नहीं होते कि वह उन पर विजय प्राप्त कर सके, वह उन आवेगों-संवेगों के प्रवाह में बह जाता है। तीसरे करण की स्थिति में साधक के आत्म-परिणाम आवेगों-संवेगों की तुलना में अधिक शक्तिशाली होते हैं, वह उन्हें पराजित कर देता है तथा ग्रंथि-भेद करके सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेता है। __ यही प्रक्रिया चारित्रमोह की ग्रंथियों के भेदन की है। उसमें भी ये तीनों करण साधक करता है और अन्तिम करण वाला साधक ही विजयी होकर ग्रन्थिभेद में सफल होता है । इसके लिए ग्रंथों में एक उदाहरण दिया है तीन व्यक्ति परदेश जाने के लिए अपने गांव से चले । रास्ते में विकट वन पड़ता था। तीनों व्यक्ति वन में होकर जा रहे थे कि सामने से अचानक चार डाकू आ गये थे। पहला व्यक्ति तो इतना डरपोक निकला कि डाकुओं को देखकर ही उल्टे पाँवों लौट गया। दूसरे व्यक्ति ने संघर्ष किया किन्तु उन डाकुओं से परास्त हो गया, उनके बन्धन में बंध गया। तीसरा व्यक्ति इतना साहसी था कि उस अकेले ने ही उन चारों डाकुओं को पराजित कर दिया और अपने गन्तव्य स्थल-लक्ष्य पर पहुँच गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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