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जैन योग: सिद्धान्त और साधना
सबसे पहले साधक को ध्यान रखना चाहिए कि वह ग्रन्थि का भेदन कर रहा है, छेदन नहीं। उसे काटने (कर्तन करने) अथवा तोड़ने का प्रयोस न करे; अपितु उसे सुलझाए, शिथिल करे, उसका बन्धन ढीला करके उसे खोले ।
कुछ साधक आवेश एवं उत्साह में भरकर ग्रन्थियों को तोड़ने का प्रयास करते हैं, किन्तु उनकी यह क्रिया मूलतः विपरीत और हानिकारक है । इसके परिणाम बड़े भयंकर होते हैं, गाँठ तो खैर खुलती ही नहीं, ग्रंथि भी नहीं टूटती वरन् मानसिक विकृति और उत्पन्न हो जाती है।
धागा एक स्थूल वस्तु है, वह टूट सकता है, उसके दो टुकड़े हो सकते हैं किन्तु चेतना एक अखंड धारा है, इसके खण्ड नहीं हो सकते, यदि उस अखंड चेतना के प्रवाह को ग्रंथिभेद करते समय तोड़ने का प्रयास किया जायगा तो वही स्थिति बनेगी जैसी कि नदी के प्रवाह को अचानक रोकने से होती है, नदी का जल तटों को तोड़कर सर्वनाश का-प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देगा । उसी प्रकार चेतना के सहज प्रवाह को रोकने का परिणाम भी साधक के लिए अतिभयंकर होता है। ____ अतः ग्रंथिभेदयोग की साधना के लिए क्रमपूर्वक चलना हितकर है।
. प्रन्थिभेद की प्रक्रिया एवं क्रम सुयोग्य साधक ग्रंथिभेद क्रमपूर्वक और बड़ी जागरूकता के साथ करता है। ग्रंथिभेद करते समय निरंतर उत्साह, लगन, दृढ़निष्ठा और उल्लास का बना रहना आवश्यक है; क्योंकि इस आंतरिक संघर्ष में थोड़ी सी भी असावधानी साधक के सारे प्रयत्नों को विफल कर देती है।
___साधक अपने साधना काल में दो बार ग्रंथि-भेदन करता है। प्रथम, जब वह अपनी मिथ्या श्रद्धा को सम्यक रूप में परिणत करता है और दूसरी बार जब वह कैवल्य प्राप्ति के लिए श्रेणी का आरोहण करता है । दोनों बार का साधनाक्रम एक-सा है।
साधक अपने साधना क्रम में सर्वप्रथम अपने विश्वास को सम्यक बनाता है, उस समय उसकी आत्मिक चेतना का संघर्ष दर्शन (श्रद्धा) को विपरीत करने वाली ग्रंथियों से होता है। इस समय चेतना का प्रतिपक्षी होता हैं-मोह । मोह वहां राग और द्वष-दो रूपों में अपने को प्रगट करता है। साधक को अपनी पुरानी मान्यताओं और धारणाओं तथा कदाग्रह का राग सताता है, कभी संप्रदाय का राग सामने आ जाता है तो कभी पुराने संस्कारों का; इसी प्रकार द्वष भी विभिन्न रूप रखकर सामने आता है।
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