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जैन योग : सिद्धान्त भोर साधना
पतंजलि ने ध्यान का सम्बन्ध केवल मन से माना है। उनका अभिमत है-जहाँ चित्त को लगाया जाय उसी में वृत्ति की एकतानता ध्यान है। विसुद्धिमग्गो में भी ध्यान को मानसिक ही माना है।'
किन्तु जैन योग साधना में ध्यान को मानसिक, वाचिक और कायिक-तीनों प्रकार का माना है।
ध्यानयोगी साधक जब 'मेरा शरीर अकंपित हो' इस तरह स्थिरकाय बनता है, वह उसका कायिक ध्यान है । इसी तरह जब वह संकल्पपूर्वक वचनयोग को स्थिर करता है तब उसे वाचिक ध्यान होता है और जब वह मन को एकान करता है तथा वाणी और शरीर को भी उसी लक्ष्य पर केन्द्रित करता है तब उसको कायिक, वाचिक तथा मानसिक तीनों ध्यान एक साथ हो जाते हैं।
यही पूर्ण ध्यान है तथा इसी में एकाग्रता एवं अखंडता होती है और एकाग्रता घनीभूत होती है।
वस्तुतः ध्यान वह अवस्था है, जिसमें साधक के चित्त की अपने आलंबन में पूर्ण एकाग्रता होती है, मन चेतना के विराट सागर में लीन हो जाता है, वचन और काय भी उसी में तल्लीन हो जाते हैं, तीनों योगों की चंचल अवस्था, स्थिर रूप में परिणत हो जाती है।
इसीलिए जैन योग की दृष्टि से तीनों योगों का निरोध तथा स्थिरता ही ध्यान है। क्योंकि जब तक तीनों योगों का निरोध नहीं हो जाता, तब तक संवरयोग की साधना नहीं हो सकती । आस्रव का निरोध ही तो संवर हैं और मन-वचन-काय योग की प्रवृत्ति ही आस्रव है । इसका फलित यह है कि ध्यान की पूर्णता के लिए तीनों योगों का निरोध आवश्यक है और तभी कर्मों की निर्जरा होती है जो ध्यानयोग का प्रमुख लक्ष्य है।
ध्यान-साधना के प्रयोजन एवं उपलब्धियाँ तपोयोगी साधक ध्यान तप की साधना एक ही लक्ष्य को लेकर करता हैं, और वह है-मुक्ति, कर्म-बन्धनों से मुक्ति, जन्म-मरणरूप चातुर्गतिक संसार से मुक्ति । और इस साधना को यदि संसार की अपेक्षा से देखा जाय
१ पातंजल योग सूत्र ३/२ २ विसुद्धिमग्गो, पृष्ठ १४१-१५१ ३ आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४७४, १४७६-७८
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