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________________ १५२ जैन योग : सिमान्त और साधना साधक दो दिन का निर्जल उपवास (षष्ठ भक्त-बेला) करता है। ग्राम अथवा नगर के बाह्य भाग में दोनों पैरों को संकुचित कर तथा दोनों भुजाओं को जानु पर्यन्त लम्बी करके (खड्गासन) कायोत्सर्ग करता है। इन सभी प्रतिमाओं (आठवों से लेकर ग्यारहवीं तक) में साधक संवर और ध्यानयोग तथा तपोयोग (अनशन तप की अपेक्षा से) की साधना करता हुआ आसन-जय भी करता है। ___ बारहवीं प्रतिमा भिक्षु की, यद्यपि एक रात्रि की है। किन्तु है बड़ी कठिन तथा साथ ही बहुत ही महत्त्वपूर्ण भी है। इसकी सम्यक् साधना साधक को आत्मोन्नति के चरम शिखर तक पहुंचा देती है तो थोड़ी सी भी असावधानी आत्मिक, मानसिक एवं शारीरिक रूप से अति भयंकर दुष्परिणाम भी लाती है, साधक को पतन के गर्त में भी गिरा देती है। इस प्रतिमा की साधना, साधक अष्टम भक्त (तीन दिन का चारों प्रकार के आहार का त्याग-तेला) की तपस्या द्वारा करता है । वह ग्राम या नगर के बाह्यभाग में जाकर दोनों पैरों को संकुचित कर तथा भुजाओं को जानु पर्यन्त (जंघा तक) लम्बी करके कायोत्सर्ग में स्थिर होता है । उस समय शरीर को थोड़ा सा आगे झुकाकर, एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए नेत्रों को अनिमेष रखता है तथा सम्पूर्ण इन्द्रियों को गुप्त रखता हैं। दूसरे शब्दों में उसका संपूर्ण शरीर, इन्द्रियाँ एवं मन ध्येय में लीन हो जाते हैं, ध्याता और ध्येय एकाकार हो जाते हैं। __ वह सम्पूर्ण रात्रि इसी प्रकार साधना करते हुए व्यतीत करता है । इस एक रात्रि की प्रतिमा को सम्यक प्रकार से न पालन करने वाले श्रमणयोगी को अहितकर, अशुभ, अस्वार्थ्ययकर, दुखद भविष्य वाले और अकल्याणकर—ये तीन परिणाम भोगने पड़ते हैं (१) मानसिक उन्माद अथवा पागलपन, (२) अतिदीर्घ समय तक भोगे जाने वाले रोग और आतंक, तथा (३) केवलीप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाना। इस प्रकार वह साधक आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक-तीनों प्रकार से पतित हो जाता है तथा कष्ट एवं पीड़ा में अपना जीवन व्यतीत करता है। केवलीप्रज्ञप्त धर्म से पतित होने का परिणाम तो उसे अनेक जन्मों तक दुर्गतियों और दुर्योनियों में उत्पन्न होकर भोगना पड़ता है, उसका संसार अतिदीर्घ हो जाता है, अथवा यों समझिये कि वह सागर के तट पर आकर पुनः भंवर में पड़कर डूब जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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