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२ लेश्या - ध्यान साधना
भावना तथा रंग चिकित्सा सिद्धान्त लेश्या ध्यान-साधना नया नाम है, किन्तु प्रक्रिया और अनुभूतियाँ नई
नहीं हैं ।
इस विषय को एक-एक शब्द पर चलकर समझने का प्रयत्न कीजिए । लेश्या है कर्मों से लिप्त आत्म- प्रदेशों का परिस्पन्दन' और साथ ही उस परिस्पन्दन से आकर्षित हुए कर्म-परमाणुओं का स्पन्दन । यह कषायों से -अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति है ।"
और लेश्या - ध्यान साधना है भावों ( कषाय-अनुरंजित आत्म-परिणामों तथा अप्रशस्त पुद्गल परमाणुओं) को शुद्ध करने की प्रक्रिया, आध्यात्मिक मूर्च्छा को मिटाने की विधि, मानसिक एवं शारीरिक शान्ति व स्वस्थता पाने की विधि और है जागरण, विशेष रूप से अन्तर्जागरण की प्रक्रिया ।
मानव के अन्तर्जगत में दो प्रकार के स्पन्दन सतत होते रहते हैं, दो प्रकार की धाराएँ साथ-साथ बहती रहती हैं । एक है विचारों की धारा और दूसरी है भावों की धारा ।
विचारों की धारा ज्ञान से सम्बन्धित होती है, उसमें बाह्य परिस्थितियाँ और व्यावहारिक जगत भी सहकारी होता है । मनुष्य वातावरण से, समाज से, गुरु से, पुस्तकों से जो कुछ भी ज्ञान अर्जित करता है, उसी के अनुकूल उसके अन्तर्जगत में एक धारा बन जाती है, वैसे ही उसके विचार
१ (क) लिम्पतीति लेश्या । ... कर्मभिरात्मानमित्यध्याहारापेक्षित्वात् ।
- धवला १/१,१,४/१४६/६
२ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, मूल ५३६ / ६३१ मोहोदयखओवसमोवसमखयजजीवफंदणं भावो ।
- मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम अथवा क्षय से उत्पन्न हुआ जीव का स्पन्दन ।
(ख) कषायोदयारंजिता योगप्रवृत्तिरिति ।
- सर्वार्थसिद्धि २ / ६ /१५६/११
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