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जैन योग का स्वरूप
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श्री शीलांकाचार्य ने 'ज्माणजोगं समाहटु'' इस गाथा की टीका करते हुए चित्तनिरोध लक्षण धर्मध्यानादि में मन-वचन-काया के विशिष्ट व्यापार को ही ध्यान योग कहा है।
तत्त्वार्थ सूत्र में बताया गया है-अन्तमुहर्त पर्यन्त एक ही विषय पर चित्त की सर्वथा एकाग्रता अर्थात् ध्येय विषय में एकाकार वृत्ति का प्रवाहित होना ध्यान है।
यही बात पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कही है--जहाँ चित्त को लगाया जाय, उसी में वृत्ति का एक तार चलना ध्यान है।
वस्तुतः ध्येय में चित्त का एकाकार हो जाना ही ध्यान ह । इस ध्यानयोग में साधक को ध्येयवस्तुगत एकाग्रता इतनी बढ़ जाती है कि उसको (साधक को) उस समय ध्येय के अतिरिक्त अन्य का किसी भी वस्तु का विचार भी नहीं आता। जिस आत्मा में यह ध्यानरूप योगाग्नि प्रज्वलित होती है उसका कर्मरूप मल (जो अनादिकाल से आत्मा के साथ चिपका हुआ है) भस्म हो जाता है। उसके प्रकाश से रागादि का अन्धकार विनष्ट हो जाता है, चित्त सर्वथा निर्मल हो जाता है तथा मोक्ष मन्दिर का द्वार दिखाई देने लगता है।
__ध्यानयोग आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित करने का प्रबलतम साधन है तथा आत्म-स्वातन्त्र्य, परिणामों की निश्चलता और जन्मान्तर से आत्मा के साथ सम्बद्ध कर्मों का विच्छेद-यह तीनों ध्यानयोग के फल हैं।
४. समतायोग समतायोग ध्यान में अत्यधिक उपयोगी होता है। अविद्या (मोह१ 'ज्झाणजोगं समाहट्ट' की पूरी गाथा इस प्रकार है
जमाणजोगं समाहट्ट कायं विउसेज्ज सम्रसो ।
तितिक्खं परमं नच्चा आमोक्खाए परिवएज्जासि ॥-सूयगडंग १/८/२६ २ ध्यानम्-चित्तनिरोध लक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगोविशिष्टमनोवाक्कायव्यापा
रस्तं ध्यानयोगम् । ३ ..."एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।
-तत्वार्थसूत्र ६/२७ ४ तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् ।
--पातंजल योमसूत्र ३/२ ५ सज्झायसुज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स । विसुज्झइ जंसि मलं पुरे कडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥
-दशवैकालिक, ८/६३
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