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५८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना मूढ़ता) द्वारा कल्पित इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में विवेकपूर्वक तत्त्व निर्णय-बुद्धि से राग-द्वेष रहित होना अर्थात् पदार्थों में की जाने वाली इष्ट-अनिष्ट की कल्पना को केवल अविद्या का प्रभाव समझकर उनमें उपेक्षा धारण करना समता है। उसमें निविष्ट मन-वचन-काया के व्यापार का नाम समतायोग है।
__ वस्तुतः संसार का कोई भी पदार्थ न इष्टरूप है और न अनिष्टरूप, यह संसार तो अहेयोपादेय-न ग्रहण करने योग्य और न छोड़ने योग्य है। इसमें और इसके सभी पदार्थों में जो जीव को हर्ष-शोक आदि की अनुभूति होती है, वह सब मोह का प्रभाव है, विभाव संस्कार हैं । ये संस्कार न तो आत्मा के गुण हैं और न ही आत्मा का इनके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध ही है । आत्मा का वास्तविक स्वरूप तो दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय है। इस प्रकार के विवेक-ज्ञान से आत्मा में विचार-वैषम्य का नाश और समभाव का परिणमन होने लगता है। इस सत् परिणाम द्वारा किये जाने वाले तत्त्वचिन्तन का नाम ही समतायोग है। समत्व (राग-द्वषरहितता) आत्मा का निज गुण है।
ध्यान और समता परस्पर सापेक्ष हैं। ध्यान के बिना समता की प्राप्ति नहीं हो सकती और समताभाव का प्रादुर्भाव हुए बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती। ध्यानयोग के साधक को समतायोग अनिवार्य है और समतायोग के साधक को ध्यानयोग की आवश्यकता होती है। क्योंकि ध्यान में प्राप्त चित्त की एकाग्रता समतायोग के अभाव में स्थिर नहीं रह सकती।
१ अविद्याकल्पितेषूच्चरिष्टानिष्टषु वस्तुषु । संज्ञानात् तद्व्युदासेन समता समतोच्यते ।।
-योगबिन्दु ३६४ ___ इसीलिए आगमों में साधु को आदेश दिया गया है कि वह जगत् के समस्त प्राणियों को समभाव से देखे और राग-द्वष के वशीभूत होकर किसी भी प्राणी का प्रिय अथवा अप्रिय न करे । यथा(क) सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सवि णो करेज्जा ।
-सूयगडंग १/१०/७ तथा(ख) पण्णसमत्त सया जये, समताधम्ममुदाहरे मुणी। -सूयगडंग १/२/२/६
अर्थात्-बुद्धिमान साधु (कषायों को) सदा जीते और समताधर्म का उपदेश दे।
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