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६. जैन योग : सिद्धान्त और साधना निरोध अन्य ध्यान आदि की अवस्था में भी आत्मा प्राप्त करता है, किन्तु वह आंशिक होता है। सम्पूर्ण वृत्ति-क्षय इसी योग में प्राप्त होता है।
कैवल्य अवस्था में भी तेरहवें गुणस्थान (सयोगकेवली दशा) में विकल्परूप वृत्तियों का समूल नाश हो जाता है और चौदहवें गुणस्थान (अयोगकेवली दशा) में चेष्टारूप वृत्तियों का आत्यन्तिक क्षय होता है।
इस प्रकार वृत्तिसंक्षययोग के कैवल्य प्राप्ति, शैलेशीकरण' और मोक्ष लाभ-ये तीन फल हैं।
महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित सम्प्रज्ञातयोग-जिसमें राजस एवं तामस वृत्तियों का सर्वथा निरोध होकर केवल सत्त्वप्रधान प्रज्ञा-प्रकर्षरूप वृत्ति का उदय होता है, इन चार भेदों (अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता) में सन्निहित है तथा असंप्रज्ञातयोग समाधि-जिसमें सम्पूर्ण वत्तियों का क्षय होने पर आत्मानुभवरूप समाधि प्राप्त होती है-वृत्तिसंक्षययोग के अन्तर्गत आ जाती है।
इस प्रकार आध्यात्मिक योग द्वारा साधक शनैः शनैः आत्मोत्क्रान्ति करता हुआ मोक्ष अथवा निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है, चरम लक्ष्य उसे प्राप्त हो जाता है।
आध्यात्मिक योग के अतिरिक्त जैनधर्म-दर्शन में 'तपोयोग का भी विशिष्ट स्थान है । साधक अपनी कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ आदि), वासनाओं और कर्मों को क्षय करने के लिए तथा मन एवं इन्द्रियों को वश में रखने के लिए विभिन्न प्रकार के तप करता है ।
जैन धर्म में तप का उद्देश्य आत्म-शुद्धि है। विभिन्न प्रकार के तपों से कर्मों का क्षय होकर आत्मा की निर्मलता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है और धीरे-धीरे पूर्ण निर्मलता की स्थिति प्राप्त हो जाती है।
जैन धर्म में योग के बीज प्राचीनतम आगमों में प्राप्त होते हैं । यद्यपि कहा जा सकता है कि वहाँ योग का विशद् विवेचन नहीं है। यह कुछ अंशों में १ शैलेशो मेरुस्तस्येव स्थिरता सम्पाद्यावस्था सा शैलेशी।
-अभयदेवसूरि-औपपातिक सूत्र सिद्धाधिकार ___ अर्थात्-योगों-मन-वचन-काया के व्यापारों के निरोध से मेरु के समान प्राप्त होने वाली पूर्ण स्थिरता, शैलेशीकरण है। २ तपोयोग का विशद वर्णन 'तपोयोग' नामक अध्याय में किया गया है।
-सम्पादक
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