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जैन योग का स्वरूप ई १
सत्य भी है । किन्तु योग के स्वरूप का निर्धारण तो बीज रूप में वहाँ हो ही चुका था । जैसा कि पिछले पृष्ठों के विवेचन से स्पष्ट है कि पातंजल योगसूत्र भी जैन आगमों में उल्लिखित योग सम्बन्धी वर्णन से काफी साम्य रखता है । इन योग - बीजों को ही बाद के जैन आचार्यों ने पल्लवित और विकसित किया है । जैन योग के स्पष्ट स्वरूप निर्धारण का श्रेय आचार्य हरिभद्र सूरि को है । इन्होंने अपने योगविषयक ग्रन्थों में योग दृष्टियों, आध्यात्मिकयोग, इच्छायोग, सामर्थ्ययोग, शास्त्रयोग आदि योग के अनेक प्रकारों का विस्तृत और सारगर्भित विवेचन करके जैन योग को, अन्य प्रचलित योगों से विशिष्टता प्रदान की ।
योग का महत्त्व
योग का महत्त्व जिस प्रकार योगदर्शन तथा भारत के अन्य दर्शनोंयथा वेदान्त आदि तथा गीता, उपनिषद्, पुराण आदि साहित्य में स्वीकार गया है, उसी प्रकार जैन आचार्यों ने भी योग का महत्त्व स्वीकार किया है । इसे afra और पारलौकिक तथा शारीरिक और आत्मिक उन्नति का प्रबल हेतु माना है । मन और इन्द्रियों की चंचलता को मिटाने तथा उन्हें वश में रखने के लिए भी योग की उपयोगिता स्वीकार की गई है । वस्तुतः योग से चित्त की एकाग्रता सधती है और उससे ध्येय अथवा लक्ष्य में सफलता प्राप्त होती है ।
योग मानव-जीवन के लिए अत्यन्त ही उपकारी है । इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने इसकी प्रशंसा की है तथा इसका महत्त्व इन शब्दों में बताया हैयोगः कल्पतरुः अष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्ध े स्वयं ग्रहः ||३७|| कुण्ठोभवन्ति तोक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा । योग चिल तपश्छिद्रकराण्यपि ॥ ३६ ॥ अक्षरद्वयमप्येतत् श्रयमाणं विधानतः । गीतं
पापक्षयायोच्चैर्योग सिद्धं महात्मभिः ॥४०॥ - योगबिन्दु
अर्थात् - योग उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है - यह कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि के समान साधक की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करता है । योग सभी धर्मों में प्रमुख है तथा सिद्धि - जीवन की चरम सफलता - मुक्ति का अनन्य हेतु है ।
योगरूपी कवच से जब चित्त (हृदय) आवृत (अच्छी प्रकार से सभी ओर से ढका हुआ) होता है तो काम (कामदेव) के जो तीक्ष्ण शस्त्र तप को
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