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१६० जैन योग : सिद्धान्त और साधना
इसके पालन के चार प्रकार हैं-(१) द्रव्य से-४७ दोषों (४२ आहार के और ५ मण्डल के) अथवा इनके सहित ६६ दोषों से रहित आहार आदि का सेवन करना । (२) क्षेत्र से–२ कोस (४ मील अथवा ६ किलोमीटर) से आगे (अधिक दूर तक) ले जाकर आहार-पानी का सेवन न करना (३) काल सेदिन के प्रथम प्रहर में लाया हुआ आहार उसी दिन के अन्तिम प्रहर में सेवन न करना । (४) भाव से-संयोजना आदि मण्डल दोषों से दूर रहकर आहार आदि का उपभोग करना।
(४) आदान-निपेक्षण समिति-आदान का अर्थ लेना अथवा उठाना है और निपेक्षण का अर्थ रखना है । सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के उपकरणों को आँखों से प्रतिलेखना करके तथा प्रमार्जन करके लेना और रखना आदान-निक्षेपण समिति है।
साधु के धार्मिक उपकरण दो प्रकार के होते हैं-(१) अवग्रहिकसदा उपयोग में आने वाले जैसे-रजोहरण आदि और (२) प्रयोजनवशः उपयोग में आने वाले । इनमें से प्रथम प्रकार के उपकरणों को सामान्य और द्वितीय प्रकार के उपकरणों को विशेष कहा जाता है । - इस समिति का पालन भी चार प्रकार से किया जाता है। (१) द्रव्य से-भांड-उपकरण आदि यतनापूर्वक ग्रहण करे और रखे, उन्हें जोर-जोर से ऊपर से न पटके । (२) क्षेत्र से-किसी गृहस्थ के घर में रखकर अन्यत्र विहार न करे; क्योंकि ऐसा करने से उपकरणों की प्रतिलेखना नहीं हो पाती। (३) काल से-प्रातः और सन्ध्या-दोनों प्रकार के उपकरणों की विधिपूर्वक प्रतिलेखना करे। (४) भाव से-उपकरणों को अपनी धर्मयात्रा में सिर्फ सहायक माने, उन पर ममत्व और मूर्छा न करे।
(५) परिष्ठापनिका समिति-जीव-जन्तु (त्रस और स्थावर) रहित प्रासुक भूमि पर मल-मूत्र, श्लेष्म, कफ आदि का विसर्जन करना, परिष्ठापनिका या व्युत्सर्ग समिति है।
यह विसर्जन स्थंडिल भूमि में किया जाता है । स्थंडिल भूमि चार
१ उत्तराध्ययन २४/१२ २ योगशास्त्र १/३९ ३ (क) उत्तराध्ययन २४/१५
(ख) सामार्णव १८/१४
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