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जयणायोग साधना (मातृयोग) १५६ के लिए रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) ही अवलम्बन है। (२) काल-दिन में अर्थात् सूर्य के प्रकाश में देखकर चलना, रात्रि में लघुनीति या बड़ी नीति के लिए पूजणी (या रजोहरण) से पूजकर गमन करना तथा रात्रि को विहार न करना (३) मार्ग-उन्मार्ग में गमन न करना क्योंकि उन्मार्ग में जीवों की अधिक विराधना की आशंका रहती है (४) यतना-यह चार प्रकार से की जाती है-(क) द्रव्य से-भूमि को देखकर चलना, (ख) क्षेत्र से गाड़ी को धूसरी प्रमाण अथवा अपने शरीर प्रमाण या ३ हाथ प्रमाण भूमि को देखकर चलना (ग) काल खे-दिन में देखकर और रात्रि में पूँजणी से पूजकर चलना (घ) भाव से-गमन करते समय सिर्फ गमन में ही उपयोग रखे, न स्वाध्याय करे, न किसी से वार्तालाप करे और न मार्ग में होने वाले शब्दों आदि की ओर ही ध्यान दे । मन को गमन क्रिया में एकान करके चले।
(२) भाषा समिति-क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मुखरता, विकथा आदि आठ दोषों से रहित यथासमय, परिमित और निर्दोष भाषा बोलना, श्रमणयोगी की भाषा समिति है।'
__ इसका पालन भी चार प्रकार से किया जाता है-(१) द्रव्य सेसोलह (१६) प्रकार को भाषा न बोलना-(१) कर्कश, (२) कठोर, (३) हिंसाकारी, (४) छेदक, (५) भेदक, (६) पीड़ाकारी, (७) सावध, (८) मिश्र, (९) क्रोधकारक, (१०) मानकारक, (११) मायाकारक, (१२) लोभकारक, (१३-१४) राग-द्वषकारक, (१५) मुख-कथा (अविश्वसनीय-सुनीसुनाई बात) और (१६) चार प्रकार की विकथा। (२) क्षेत्र से-मार्ग में चलते समय बात-चीत न करना (३) काल से-एक प्रहर रात्रि व्यतीत हो जाने के बाद उच्च स्वर से न बोलना (४) भाव से-राग-द्वेष रहित अनुकूल, सत्य, तथ्य, शुद्ध एवं निर्दोष वचन बोलना।'
(३) एषणा समिति-आहार आदि की गवेषणा, ग्रहणषणा तथा परिभोगेषणा में आहार आदि के सभी दोषों का निवारण करना एषणा समिति है।
१ (क) उत्तराध्ययन २४/९-१०
(ख) योगशास्त्र १/३७ २ (क) उत्तराध्ययन २४/११
(ख) ज्ञानार्णव १०/११
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