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________________ जयगायोग साधना (मातृयोग) १६१. प्रकार की होती है-(१) अनापात असंलोक, (२) अनापात संलोक, (३) आपात असंलोक और (४) आपात संलोक ।' इस समिति का पालन भी चार प्रकार से किया जाता है-(१) द्रव्य से-विषम, दग्ध, बिल, गड्ढा, अप्रकाशित स्थान में न परठे। (२) क्षेत्र सेपरिष्ठापन क्षेत्र के स्वामी की और यदि उस स्थान का कोई स्वामी न हो तो शक्रन्द्र की आज्ञा लेकर उक्त वस्तुओं को परठे। (३) काल से-दिन में अच्छी तरह देखकर और रात्रि में पूजणी से पूजकर परठे। (४) भाव से--शुभशुद्ध उपयोगपूर्वक परठे। परठने जाते समय 'आवस्सहि-आवस्सहि' कहे और परठने के बाद 'वोसिरे-वोसिरे' कहे तथा वहाँ से लौटकर 'इरियावहिया' का प्रतिक्रमण करे। __ इस प्रकार समितियों द्वारा श्रमणयोगी अपनी सम्पूर्ण प्रवृत्तियों को सावधानी तथा विवेकपूर्वक करता है। इन प्रवृत्तियों के समय भी वह शुभ भावों में रमण करता है और योग-मार्ग का अवलम्बन करता है। उसकी यह प्रवृत्तियां भी मोक्ष-मार्ग में साधक ही होती हैं। .. १ उत्तराध्ययन ३५/१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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