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________________ ५ परिमार्जनयोग साधना (षडावश्यक) परिमार्जन अथवा परिष्कार श्रमसाध्य साधना है। आप किसी स्थान अथवा वस्तु को लीजिए । यदि सावधानी से उसका परिमार्जन न किया जाय तो उस पर मैल की परतें जम जायेंगी, उस वस्तु की स्वच्छता तो समाप्त होगी ही, वह वस्तु ही विनष्ट हो जायेगी। - आपने हीरा (diamond) तो देखा ही होगा ? कितनी चमक होती है उसमें ! किन्तु यदि उसको भी सावधानीपूर्वक पौंछा न जाय, उसका उचित रीति से परिमार्जन न किया जाय तो मैल के कारण, धूल-मिट्टी जमने से उसकी चमक कम हो जायेगी। हमारी आत्मा भी विशुद्ध हीरे के समान है, इसके निज गुणों की चमक, उसका प्रकाश भी अद्भुत है किन्तु उस पर हमारे ही किये (प्रवृत्तियों) कर्मों का, दोषों का आवरण पड़ा है, मैल जम गया है और वह मैल नित्यप्रति, हर घड़ी और यहाँ तक कि प्रतिक्षण जमता ही जायेगा; यदि उसका परिमार्जन न किया गया तो।। बाह्य एवं भौतिक वस्तुओं का तो परिमार्जन सरल है, उसमें न इतनी सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है और न इतने विवेक की । वस्तु ली और किसी कपड़े या डस्टर (Duster) से साफ कर दी; किन्तु आत्मा तो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है, इतना सूक्ष्म कि इन्द्रियों और मन की पकड़ में ही नहीं आता; और उसमें लगने वाले दोष तथा कर्म भी सूक्ष्म ही हैं । अतः आत्म-परिमार्जन व्यक्ति के लिए एक साधना बन जाता है । यह साधना है तो बहुत ही सूक्ष्म किन्तु साथ ही है बहुत आवश्यक । ___ साधक चाहे गृहस्थ श्रावक हो अथवा गृहत्यागो श्रमण; जो मुक्ति को प्राप्त करना चाहता है और अपने लक्ष्य की ओर गतिशील है, उसे अपनी जीवन-शुद्धि और दोष-परिमार्जन अवश्य और नित्य-प्रति करना चाहिए । इस .. दोष-परिमार्जन और जीवन शद्धि को ही आवश्यक कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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