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________________ परिमाननयोग साधना १६३ जैन योग साधना का प्रमुख और अनिवार्य अंग आवश्यक है। यह अवश्य ही किया जाना चाहिए।' यह आत्मा को दुगुणों से हटाकर सद्गुणों के अधीन करता है, सद्गुणों को आत्मा में स्थापित करता है। यह गुणों से शून्य आत्मा को गुणों से युक्त करता है। यह गुणों को आधार भूमिआपाश्रय (आध्यात्मिक समता, विनय आदि अनेक गुणों आधार) है। योग-मार्ग के साधक को अन्तष्टिसम्पन्न होना अनिवार्य है और अन्तष्टिसम्पन्न साधक का लक्ष्य आत्मा का परिमार्जन और परिष्कार होता है, इसी दोष-परिमार्जन की प्रक्रिया से ही तो वह अपने लक्ष्य मुक्ति की प्राप्ति करता है। इसीलिए गृहस्थ साधक तथा गृहत्यागी साधक-दोनों ही प्रकार के साधक अपनी-अपनी योग्यता, क्षमता, शक्ति और भूमिका के अनुसार आवश्यक की साधना करते हैं । आवश्यक की साधना उसके छह अंगों की साधना द्वारा की जाती है। दूसरे शब्दों में, आवश्यक के छह अंग हैं। इसीलिए इसे षडावश्यक कहा जाता है। - आवश्यक साधना के छह अंग ये हैं १ अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम् । श्रमणादिभिरवश्यम् उभयकालं क्रियते इति भावः । -आवश्यक मलयगिरिवृत्ति २. गुणानांवश्यमात्मानं करोतीति ज्ञानादिगुणानाम् आसमन्ताद् वश्या इन्द्रिय कषा यादिर्भाव-शत्रवो यस्मात् तत् आवश्यकम् । -आवश्यक मलयगिरिवृत्ति ३। ज्ञानादिगुण-कदम्बकं मोक्षो वा आसमन्तादवश्यं क्रियतेऽनेन इत्यावश्यकम् । -आवश्यक मलयगिरि वृत्ति ४ आपाश्रयो वा इदं गुणानाम् प्राकृतशैल्या आवस्सयं । ५. समण सावणेण य, अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा ।। अन्नो अहो-निसस्स य, तम्हा आवस्सयं नाम ॥ -आवश्यक वृत्ति, गा० २ ६ अनुयोगद्वार सूत्र में इनके नाम ये हैं-(१) सावद्ययोग विरति (सामायिक) (२) उत्कीर्तन (चतुर्विशतिस्तव) (३) गुणवत् प्रतिपत्ति (गुरु उपासना अथवा वन्दना) (४) स्खलित निन्दना (प्रतिक्रमण-पिछले पापों की आलोचना) (५) व्रणचिकित्सा (कायोत्सर्ग-ध्यान-शरीर से ममत्व त्याग) और (६) गुणधारण (प्रत्याख्यान-भविष्य के लिए विभिन्न प्रकार के त्याग तथा नियम ग्रहण करना आदि)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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