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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
mind) तथा विभाजित व्यक्तित्व (Divided personatity) वाला हो जाता है । न वह व्यावहारिक जगत में सफल हो पाता है और न आध्यात्मिक क्षेत्र में; वह घुटन भरा असन्तुष्ट जीवन जीता है । वह कभी उच्चता ( superiority complex) का प्रदर्शन करता है तो कभी हीनता (inferiority complex) का । निर्बलों पर झल्लाना, उन पर नाराज होना तथा सबलों की खुशामद करनायही उसका जीवन व्यवहार बन जाता है । उसे स्वयं अपने ऊपर विश्वास तो रहता ही नहीं, उसका आत्मविश्वास समाप्तप्राय हो जाता है, कभी अतिविश्वास (over-confidence) का शिकार बन जाता है तो कभी अल्पविश्वास (under confidence) का । विभिन्न प्रकार के परस्पर विरोधी विचारों के वात्याचक्रों घूमता-भटकता रहता है ।
अतः ग्रन्थियों के मूल कारणों और आधारों को समझना साधक के लिए आवश्यक है जिससे वह अपनी साधना समुचित रूप से कर सके । ग्रन्थियों के मूल कारण और आधार प्रन्थियों के मूल कारण हैं— राग-द्वेष और आधार है-पक्षपात । पक्ष दो होते हैं - एक अपना और दूसरा पराया । अपने के प्रति कभी राग भी होता है और रागजन्य क्रोध भी । क्रोध इस प्रकार कि अपने पुत्र आदि, जिस पर अपनत्व भाव है उसने कोई बात न मानी तो उस पर क्रोध आगया । लेकिन पराया तो पराया है, उसके प्रति अपनत्व भाव तो है ही नहीं; उसके प्रति द्वेष की ग्रंथि ही बनती है ।
इस अपने-पराये का पक्षपात और अहंकार-ममकार, राग-द्वेष रूप आधार को समाप्त किये बिना ग्रंथि भेद नहीं हो पाता ।
ग्रन्थिभेदयोग की साधना
ग्रंथि भेद का अभिप्राय श्वानवृत्ति को त्यागकर सिंहवृत्ति अपनाना है, श्वान से सिंह बनना है । श्वान की दो प्रमुख वृत्तियां हैं- एक, निर्बलों पर झपटना, उन पर गुर्राना, उनको नोंचना, खसोटना, नाजायज रूप से दबाना; तथा बलवानों के आगे दब जाना, दाँत दिखाना, पूँछ हिलाना और उनकी खुशामद करना; और दूसरी वृत्ति है निमित्त पर झपटना, निमित्त को ही दोषी मानना; जैसे कोई व्यक्ति कुत्ते को लकड़ी से मारे तो वह लकड़ी पर झपटता है, उस व्यक्ति पर नहीं; श्वान की यह दूसरी वृत्ति निमित्त आंश्रित होती है ।
इसी प्रकार जो ग्रंथिग्रस्त मनुष्य होते हैं वे भी श्वानवृत्ति के समान आचरण करते हैं ।
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