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१ प्रन्थिभेदयोग साधना १८३ यदि मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाय तो आधुनिक युग का मानव अनेक प्रकार की ग्रन्थियाँ अपने अन्तरमानस में पाले हुए हैं। हीनभावना, उच्चता की भावना, अभिमान एवं वस्तुओं के प्रदर्शन की भावना आदि विभिन्न प्रकार की ग्रन्थियों से वह पीड़ित है ।
सबसे बड़ी बात यह है कि आज शराफत का युग है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी शराफत का प्रदर्शन करता है। जिसके प्रति वह मन में बदले की भावना रखे हुए है, उसे धोखा देना चाहता है, उसकी समृद्धि और उन्नति के प्रति ईर्ष्या और जलन रखता है, उसे गिराने की योजनाएं बनाता है, षड्यन्त्र रचता है; किन्तु उसी व्यक्ति से जब वह मिलता है तो ऐसा प्रगट करता है मानो उसका सबसे बड़ा मित्र और हितैषी वही है।
सामाजिक ही नहीं राजनीतिक, पारिवारिक आदि सभी क्षेत्रों में और यहाँ तक कि धार्मिक क्षेत्र में भी ये ग्रन्थियाँ अपना प्रभाव दिखाती हैं। इनके परिणामस्वरूप मनुष्य का व्यक्तित्व खण्डित या विभक्त हो जाता है, उसका आचरण दोहरा-दो प्रकार का हो जाता है, अन्दर कुछ और बाहर कुछ और ही।
प्रन्थियाँ कारण है-दोहरे व्यक्तित्व को ग्रन्थियों के कारण मनुष्य का व्यक्तित्व दोहरा हो जाता है। वह ऊपर से सज्जन-साधु और मन से दुर्जन तथा पापी बन जाता है, दूसरे शब्दों में ढोंगी और पाखंडी (Hypocrate) हो जाता है ।
धर्मस्थानक में जाकर सदुपदेश सुनता है । वासना एवं भोगों के त्याग के सदुपदेश भी सुनता है । उस समय सुनने में उसे ये बातें अच्छी भी लगती हैं; किन्तु ज्योंही घर या व्यापारिक संस्थान में आता है, उसका व्यवहार बदल जाता है।
ग्रन्थियों के कारण ही मनुष्य धर्म और धार्मिक बातों को अपने अन्तर में रमा नहीं पाता, उसका धर्माचरण बाहरी अथवा ऊारी ही रह जाता है । वास्तविकता यह है कि धर्म अचेतन तथा अवचेतन मनोजगत की वस्तु है। किन्तु वहाँ तो राग-द्वेष और विभिन्न प्रकार की ग्रन्थियाँ जड़ जमाए हैं तब धर्म वहाँ कैसे स्थान पा सकता है, चेतना को ऊपरी सतह तक ही रह जाता है। धार्मिक सिद्धान्तों का केवल दोहराना मात्र होता है।
अन्तर में राग-द्वेष और तरह-तरह की ग्रन्थियाँ तथा ऊपर से सज्जनता इसी से मनुष्य खण्डित मन (Divided mind)' भग्नाश (frustrated
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