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________________ परिमार्जनमोग साधना १७५ (५) सदभाव प्रत्याख्यान-इसमें साधक सभी प्रवृत्तियों को त्यागकर वीतराग बनने की साधना करता है। (६) शरीर-प्रत्याख्यान-शरीर से ममत्व भाव को हटाना। यह साधक की अशरीरी-देहातीत (सिद्ध) बनने की साधना है । (७) सहाय प्रत्याख्यान-किसी अन्य का सहयोग अथवा सहायता लेने का त्याग । इससे साधक एकत्वभाव को प्राप्त हो जाता है। एकत्व भाव को प्राप्त होने से वह अल्प शब्द वाला, अल्प कलह वाला और संयमबहुल तथा समाधिबहुल हो जाता है। (८) कषाय-प्रत्याख्यान-इसमें साधक क्रोध आदि कषायों का विसर्जन करता है, परिणामस्वरूप वह राग-द्वेषविजेता, परमशान्तचेता, वीतराम बन जाता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान की साधना द्वारा साधक उत्तरोत्तर अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ अपने चरम लक्ष्य को पा लेता है। षडावश्यक : संपूर्ण अध्यात्मयोग साधना क्रम की दृष्टि से विचार किया जाय तो षडावश्यक की साधना, संपूर्ण अध्यात्मयोग की साधना है। इसके द्वारा संपूर्ण अध्यात्मयोग सध जाता है। जैन योग के मर्मज्ञ आचार्य हरिभद्रसूरि ने अध्यात्म योग के ५ सोपान बताये हैं--(१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता, और (५) वृत्तिसंक्षय । षडावश्यक में इन पांचों अंगों का अभ्यास होता है। षडावश्यक के पहले अंग सावद्ययोगविरति (सामायिक) में समता की साधना होती है। चतुर्विंशतिस्तव और गुरुवंदन (उत्कीर्तन तथा गुणवत् प्रतिपत्ति) में साधक अध्यात्म की साधना करता है। प्रतिक्रमण द्वारा वह अपने दोषों का परिमार्जन करता है। कायोत्सर्ग में भावना और ध्यान की साधना होती है और प्रत्याख्यान द्वारा वृत्तिसंक्षययोग को साधना होती है। इस प्रकार साधक षडावश्यक द्वारा सम्पूर्ण अध्यात्मयोग की साधना में रमण कर सकता है। पातंजल अष्टांगयोग की दृष्टि से विचार करने पर षडावश्यक द्वारा योग के आठों अंगों की साधना हो जाती है। प्रत्याख्यान द्वारा यम-नियम तथा कायोत्सर्ग द्वारा आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा (ध्यान की पूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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