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जन योग : तिवान्त और साधना
तृष्णा का अन्त हो जाता है । तृष्णा के अन्त से अनुपम उपशम भाव उत्पन्न होता है और उससे प्रत्याख्यान विशुद्ध होता है। प्रत्याख्यान की विशुद्धि और उपशम भाव की उपलब्धि से चारित्रधर्म की आराधना होती है । चारित्रधर्म से कर्मों की निर्जरा होती है । उससे अपूर्वकरण होता है। अपूर्वकरण होने से केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रगट हो जाते हैं और फिर साधक मुक्त हो जाता है, उसे शाश्वत सुख की प्राप्ति हो जाती है।'
___ इस प्रकार यह प्रत्याख्यान क्रमशः वृत्तिसंक्षययोग की ओर बढ़ने वाली साधना बन जाता है।
प्रत्याख्यान में साधक विभिन्न प्रकार के व्रत-नियमों को ग्रहण करता है। इन नियमों के कुछ विशेष प्रकार यह हैं।
(१) संभोग प्रत्याख्यान-सम्मिलित रूप से भोजन का त्याग । इससे साधक स्वावलम्बी और यथालाभसंतोषी बनता है।
(२) उपधि-स्याग-वस्त्र आदि उपकरणों का त्याग। इससे साधक को ध्यान में निर्विघ्नता की उपलब्धि होती है। उसकी इच्छा और आकांक्षाओं में कमी आती है।
(३) आहार प्रत्याख्यान-इसमें साधक आहार का त्याग करता है। इस प्रकार वह अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी आदि तपों की साधना में समर्थ होता है।
(४) योग-प्रत्याख्यान-इसमें साधक अपनी क्षमता, शक्ति, योग्यता और पद के अनुसार मन-वचन-काय-तीनों योगों के निरोध की साधना करता हैं। यद्यपि तीनों योगों का पूर्ण रूप से निरोध तो साधना की उच्चतम भूमिका (चौदहवां गुणस्थान) में होता है किन्तु साधक अपनी क्षमता के अनुसार योगों के निरोध की साधना करता है।
पच्चक्खाणंमि कए, आसवदाराई हुति पिहियाई । आसव वुच्छेएणं, तण्हा-वुच्छेयणं होइ ॥ तण्हा वोच्छेदेण य, अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोवसमेण पुणो, पच्चक्खाणं हवइ सुद्ध । तत्तो चरित्तधम्मो, कम्म विवेगो तओ अपुव्वं तु । तत्तो केवलनाणं, तओ या मुक्खो सया सुक्खो ॥
-आवश्यकनियुक्ति, गाथा १५६४-१५६६ २ उत्तराध्ययन सूत्र २६/३३-४१
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