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१७० जैन योग : सिद्धान्त और साधना - वीतराग देवों (तीर्थंकरों) की स्तुति करने से साधक को अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। उसकी श्रद्धा परिमार्जित होती है और सम्यक्त्व शद्ध होता है। वीतराग-स्तुति से साधक आलम्बनयोग और भक्तियोग की साधना में परिपक्व होता है।
(३) वन्दना : समर्पणयोग देव के उपरान्त दूसरा स्थान गुरु का होता है । गुरु के निर्देशन में ही साधक अपनी साधना को सम्यक् रूप में परिपूर्ण कर पाता है । अतः गुरु का उसके जीवन-निर्माण में महत्त्वपूर्ण हाथ होता है तथा उसके ऊपर उनका महान् उपकार होता है, गुरु के उपदेश ही उसके साधक-जीवन की प्रेरणा और सम्बल होते हैं। अतः साधक सर्वात्मना गुरु के प्रति समर्पित होता है तथा भक्ति-भावपूर्वक उनकी वन्दना करता है। उन्हें मंगल और कल्याण रूप समझता है।
इस प्रकार साधक गुरु-वन्दन एवं गुरु भक्ति द्वारा भक्तियोग की साधना तो करता ही है साथ ही समर्पणयोग की भी साधना करता है। इससे वह अपने अहंकार का विसर्जन कर देता है तथा उसका हृदय-मानसभूमि, सरल और शुद्ध हो जाती है।
(४) प्रतिक्रमण : मात्म-शुद्धि का प्रयोग यद्यपि साधक अपनी साधना में सदा जागरूक और सावधान रहने का प्रयत्न करता है। फिर भी अनादिकालीन लगे हुए राग-द्वषों, विषय-कषायों के आवेगों के कारण दोष लगने की सम्भावना रहती ही है। इन दोषों की आलोचना करके आत्म-शुद्धि करना ही प्रतिक्रमण है।
। दूसरे शब्दों में प्रतिक्रमण आत्म-शुद्धि की साधना है, अशुभ से शुभ में लौटने की साधना है, जीवन को मांजने की कला है।
इसीलिए आत्मदृष्टि से जागरूक साधक दिन में दो बार-प्रातःकाल एवं सायंकाल प्रतिक्रमण करता है। अपनी असावधानी से लगे दोषों की आलोचना करके, आत्म-शुद्धि का प्रयास करता है।
इस प्रकार प्रतिक्रमण आत्म-शुद्धि तथा जीवन-शोधन की श्रेष्ठ प्रक्रिया है।
(५) कायोत्सर्ग : देह में विवेह साधना कायोत्सर्ग में साधक अपने शरीर के ममत्व का त्याग करता है । वह
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