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________________ परिमार्जनयोग साधना १६६ साधक स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के वचनयोग को शुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार को वचन शुद्धि से वह शुद्ध सामायिक की साधना-आराधना करता है। (ग) काय शुद्धि-काय-शुद्धि का अभिप्राय काय-संयम है। सामायिक का साधक किसी भी एक आसन से स्थिर होकर बैठता है। वास्तविकता यह है कि काय-शरीर के अस्थिर होने से वचनयोग भी अस्थिर हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप मनोयोग भी चंचल हो जाता है । साथ ही काय-शुद्धि द्वारा साधक आसन-जय भी करता है । ___इन सभी प्रकार की शुद्धियों के साथ-साथ वह मन-वचन-काय-योग की स्थिरता, अचंचलता और एकाग्रता की सिद्धि करके सामायिक की शुद्ध साधना करता है। सामायिक साधना का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम साधक के जीवन में यह होता है कि उसका संपूर्ण जीवन और व्यवहार ममतामय हो जाता है, उसकी राग-द्वेष की वृत्तियाँ उपशान्त हो जाती हैं, उसे आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव होता है। (२) चतुर्विशतिस्तव : भक्तियोग का प्रकर्ष यह षडावश्यक का दूसरा अंग है। षडावश्यक के प्रथम अंग सामायिक में साधक समस्त सावद्य योगों का त्याग कर देता है। किन्तु मन बड़ा चंचल है, उसे किसी न किसी आलम्बन की आवश्यकता पड़ती ही है। उसे किसी श्रेष्ठ ध्येय में लगाना आवश्यक है; अन्यथा वह इन्द्रिय-विषयों की ओर- अशुभ भावों की ओर दौड़ लगाने लगता है। साथ ही यह भी एक तथ्य है कि जब तक साधक साधकावस्था में है, उसकी साधना पूर्ण नहीं हुई है तब तक उसे आलम्बन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। आत्म-साधक के लिए वीतराग देव ही सर्वश्रेष्ठ आलम्बन हैं, क्योंकि उसका ध्येय भी तो वीतरागता प्राप्त करना है, वह स्वयं वीतराग ही तो बनना चाहता है, उसकी साधना का आदि-मध्य-अन्त सब कुछ वीतरागता ही तो है और तीर्थंकर देव वीतरागता के चरमोत्कर्ष हैं। अतः साधक उनका आलम्बन लेता है, उनकी स्तुति करता है और उनके गुणों को बारबार स्मरण करके उन्हें अपने मन-मस्तिष्क में धारण करता है, उनका उज्ज्वल आदर्श सदैव अपने समक्ष रखकर उन जैसा वीतराग बनने का प्रयत्न करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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