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१४६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
सम्बन्धी संयमन और नियमन करके अपनी इच्छाओं का निरोध करता है तथा अहिंसा की साधना में आगे बढ़ता है ।
(८) आरम्भ त्याग प्रतिमा
( अहिंसा यम की साधना )
आरम्भ शब्द जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है । इसका अभिप्राय - हिंसात्मक क्रिया-कलाप ।
मन से किसी प्राणी को दुःख पहुँचाने अथवा हनन करने का विचार मानसिक आरम्भ है | जिससे किसी का हृदय तिलमिला उठे, पीड़ित हो जाय, ऐसे वचन बोलना वाचिक आरम्भ है । शारीरिक क्रियाओं, लकड़ी, शस्त्र आदि से किसी प्राणी को पीड़ित करना, डराना, धमकाना आदि शारीरिक आरम्भ है । हिंसात्मक होने के कारण वह घर एवं व्यापार सम्बन्धी कार्य अथवा आरम्भ नहीं करता ।
इस प्रतिमा की साधना करने वाला साधक इन आरम्भों को स्वयं नहीं करता; किन्तु पुत्र आदि तथा सेवक वर्ग से आरम्भ कराने का त्यागी नहीं होता । '
साधक स्वयं स्थूल प्राणियों की हिंसा न करके अहिंसा-यम की साधनाआराधना करता है ।
(६) प्रेष्य परित्याग प्रतिमा
( संवरयोग तथा सूक्ष्म अहिंसा यम की साधना )
प्रस्तुत प्रतिमा में साधक अहिंसा यम की ओर भी सूक्ष्म आराधना करता है । वह घर एवं व्यापार सम्बन्धी कार्य किसी अन्य (पुत्र, सेवक आदि) से भी नहीं करवाता है ।" यहाँ तक कि वह वायुयान, जलयान, स्थलयान (मोटर कार, स्कूटर, ट्र ेन, रिक्शा, बैलगाड़ी आदि ) किसी भी प्रकार के वाहन का प्रयोग स्वयं नहीं करता और दूसरों से भी नहीं कराता । वाहनों का प्रयोग करने-कराने का त्याग वह इसलिए करता है कि वाहनों से स्थूल
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(क) आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २४, पृष्ठ ६१
(ख) विंशतिका १० / १४
(ग) आचार्य सकलकीर्ति ने इस आठवीं प्रतिमा में ही वाहनों का प्रयोग करने तथा कराने का त्याग माना है । - देखिए प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, श्लोक १०७
आयारदसा,
छठी दशा, सूत्र २५, पृष्ठ ६१.
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