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विशिष्टयोग भूमिका-प्रतिमायोग-साधना १४६ संसार-त्यागी श्रमण की भी १२ साधना भूमिकाएँ अथवा प्रतिमाएँ हैं। श्रमणयोगी विशिष्ट साधना करने के लिए इन प्रतिमाओं को ग्रहण करता है। इन प्रतिमाओं की साधना में वह विशिष्ट अभिग्रह और नियम ग्रहण करता है तथा उनका यथाविधि दृढ़तापूर्वक पालन करता है।
इन प्रतिमाओं अथवा प्रतिमायोग की साधना में वह आहार-नियमन, शरीर-नियमन, वाक एवं मन वशीकरण तथा आसन आदि योग के लगभग सभी अंगों की साधना करता है। मन-वचन-काय-तीनों योगों को वश में रखता है।
अतः योग की दृष्टि से ये प्रतिमाएँ श्रमण-जीवन में अति महत्त्वपूर्ण हैं।
१. प्रथम प्रतिमा श्रमणयोगी की प्रथम प्रतिमा १ मास की है । इस प्रतिमा के आराधन काल में श्रमण शारीरिक संस्कार और शरीर के ममत्व भाव से रहित होता है, वह शरीर के प्रति उदासीन हो जाता है।
___ वह देव, मनुष्य और तिर्यंच (पशु-पक्षी) सम्बन्धी जितने भी उपसर्ग, कष्ट एवं पीड़ा आते हैं, उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करता है, उपसर्ग करने वाले के प्रति मन में तनिक भी द्वष नहीं लाता वरन् उसे उपकारी ही मानता है कि वह कर्म-निर्जरा में सहायक बन रहा है। वह अपने मन में तनिक भी दैन्य भाव नहीं लाता अपितु वीरतापूर्वक समताभाव से उन कष्टों को झेलता है।
वह आहार के विषय में इतना सन्तोषी हो जाता है कि एक दत्ति (एक अखण्ड धारा से जितना भी आहार तथा पानी साधु के पात्र में श्रावक या दाता दे) अन्न की और एक दत्ति पानी की लेता है और उसी में सन्तोष कर लेता है । भिक्षा के लिए वह दिन में एक ही बार जाता है और वह भी विशिष्ट नियमों एवं विधि के साथ।
वह एक गाँव में दो रात्रि से अधिक निवास नहीं करता।
भाषा तथा वाणी का वह इतना संयम कर लेता है कि वह -(१) याचनी (दूसरे से वस्त्र पात्र आदि माँगना), (२) पृच्छनी (शंका-समाधान के लिए गुरुदेव से प्रश्न पूछना अथवा किसी से मार्ग पूछना), (३) अनुज्ञापिनी (गुरु से गोचरी आदि की आज्ञा लेना अथवा शय्यातर-गृहस्वामी से स्थान की आज्ञा लेना) और (४) पृष्ठ व्याकरणी (किसी व्यक्ति द्वारा किये
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