________________
१४८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
वह भिक्षा द्वारा प्राप्त भोजन करता है । केशलोंच करता है और यदि शक्ति न हो तो छुरे (उस्तरे से) मुण्डन भी करा सकता है । उसका वेष और आचार श्रमण जैसा होता है, इसीलिए इस प्रतिमा का नाम श्रमणभूत प्रतिमा है । इस प्रतिमा के बाद वह श्रमण बन जाता है ।"
इस प्रतिमा को धारण करने वाला साधक यम-नियमों का पालन करता हुआ स्वाध्याय, ध्यान, समाधि आदि योग क्रिया-प्रक्रियाओं की साधना करता है । उसका जीवन पूर्ण योगी का जीवन होता है ।
प्रतिमाओं की विशेष बातें
।
गृहस्थ प्रतिमाओं की साधना क्रमशः होती है । साधक पहली, दूसरी, तीसरी तथा इसी प्रकार क्रमशः ग्यारहवीं प्रतिमा तक शनैः शनैः उन्नति करता है | ये गृहस्थ साधक की साधना की भूमिकाएँ अथवा सोपान हैं । जिस प्रकार सीढ़ी चढ़ने के लिए पहले पहली सीढ़ी पर पैर रखा जाता है, फिर दूसरी पर; उसी प्रकार इन प्रतिमाओं की भी साधना की जाती है । साधक पहली प्रतिमा की साधना में परिपक्व होने के बाद ही दूसरी प्रतिमा धारण करता है । उत्तरोत्तर प्रतिमाओं की साधना करते समय वह पिछली प्रतिमाओं में किये गये अभ्यास को छोड़ नहीं देता, वरन् सुदृढ़तापूर्वक करता रहता है ।
इन प्रतिमाओं में से प्रथम प्रतिमा का कालमान या साधना काल १ मास का, दूसरी प्रतिमा का २ मास का, तीसरी प्रतिमा का ३ मास का, चौथी प्रतिमा का ४ मास का, पाँचवीं प्रतिमा का ५ मास का, छठी प्रतिमा का ६ मास का, सातवीं प्रतिमा ७ मास का, आठवीं प्रतिमा का मास का, नवीं प्रतिमा का मास का, दसवीं प्रतिमा का १० मास का, और ग्यारहवीं प्रतिमा का ११ मास का है ।
प्रतिमाओं की साधना करते हुए गृहस्थ साधक योगनिष्ठ होता जाता है और अन्तिम प्रतिमा में तो वह योगी ही बन जाता है । इसीलिए प्रतिमाओं की साधना को योग साधना तथा प्रतिमायोग माना जाता है ।
(२) भिक्षु प्रतिमा
( गृहत्यागी श्रमण की विशिष्ट साधना भूमिकाएं)
जिस प्रकार गृहस्थ साधक की ११ साधना भूमिकाएँ हैं, उसी प्रकार
आयारदसा, छठी दशा, सूत्र २७, पृष्ठ ६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org