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ध्यानयोग साधना २८१ है। सार यह कि देव-दुर्लभ मानव-जीवन इस दृध्यनि-आर्तध्यान में भस्मीभूत
इस दुनि से ध्यानयोगी साधक को विशेष रूप से सावधान रहने तथा बचने की आवश्यकता है।
रौद्रध्यान कर, कठोर एवं हिंसक व्यक्ति को रुद्र कहा जाता है। इन अतिशय क्र र भावनाओं तथा प्रवृत्तियों से संश्लिष्ट ध्यान रौद्रध्यान है। क्र रता और कठोरता का मूल कारण हिंसा, झूठ, स्तेय और विषय-संरक्षण की प्रवृत्ति है। इन प्रवृत्तियों के आधार पर रौद्रध्यान के भी चार' प्रकार हैं-(१) हिंसानुबन्धी, (२) मृषानुबन्धी, (२) स्तेयानुबन्धी और (४) विषय-संरक्षणानुबन्धी।
(१) हिंसानुबन्धी रौप्रध्यान-रौद्र ध्यान के इस प्रथम प्रकार का आधार क्रोध कषाय है। क्रोध कषाय से संश्लिष्ट चिन्तन ही हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है। ऐसा व्यक्ति बहुत ही कर और कठोर होता है। इसमें क्रोध का विष अधिक होता है। इसका स्वभाव निर्दय और बुद्धि पापमयी होती है। दूसरे प्राणियों को दुखी और पीड़ित देखकर यह हर्षित एवं आनन्दित होता है। यह स्वयं भी प्राणियों को मारने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता। यह पाप कार्यों में कुशल, दूसरों को पाप का उपदेश देने वाला तथा पापी जीवों की संगति करने वाला होता है ।।
ऐसे व्यक्ति के प्रमुख लक्षण-हिंसा के साधनों को एकत्र करना, हिंसक प्राणियों का पोषण करना, व्यर्थ की हिंसा करना और दयालु पुरुषों से द्वेष करना, उनकी मानहानि, अर्थहानि की योजनाओं में सदा तल्लीन रहना, आदि हैं।
इनकी लेश्या (कषायरंजित परिणाम) अत्यधिक संक्लिष्ट और दुष्प्रभाव वाली होती है।
ध्यानयोगी साधक इस ध्यान को कभी नहीं करता, इससे दूर ही रहता है।
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(क) भगवती २५/७ (ख) औपपातिक तपोऽधिकार सूत्र ३० (ग) स्थानांग, स्थान ४ (घ) तत्त्वार्थ सूत्र ६/३६
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