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________________ २८० मन योग: सिदान्त और साधना संयोग, (३) प्रतिकूल वेदना अथवा पीड़ा चिन्तवन और (४) काम-भोगों की लालसा अथवा निदान । (१) इष्टवियोग आर्तध्यान-धन-ऐश्वर्य, स्त्री-पुत्र आदि सांसारिक काम-भोग के पदार्थ तथा यश-प्रतिष्ठा आदि का वियोग न हो जाय, इस प्रकार की चिन्ता करते रहना तथा वियोग होने पर उनके लिए हाय-हाय करते रहना, झुरते रहना, उदास और गमगीन बने रहना इष्टवियोग आतध्यान है। (२) अनिष्टसंयोग आर्तध्यान-अनिष्ट और अप्रिय वस्तुओं, यथा-कोई मेरा शत्र न बन जाये, कोई मुझे हानि न पहँचा दे, मुझे हानि न हो जाय आदि ऐसी अनिष्ट वस्तुओं के संयोग की सम्भावना से चिन्तित, दुखी और उदास रहना तथा अनिष्ट संयोग हो जाने पर आकुल-व्याकुल हो जाना और सतत यह चिन्ता करते रहना कि इस आपत्ति से कब छुटकारा मिलेगा, यह सब अनिष्टसंयोग आर्तध्यान है। (३) प्रतिकूल वेदना आर्तध्यान-शारीरिक एवं मानसिक आधि-व्याधियों से ग्रस्त जीव उनसे छुटकारा पाने का जो रात-दिन चिन्तन किया करता है, वह प्रतिकूल वेदना आर्तध्यान है। साथ ही भविष्य में कोई रोग न हो जाय, इस बात की चिन्ता करते रहना, रोग होने पर सतत रोग और पीड़ा में ही चित्तवृत्ति लगाये रखना अथवा भूतकाल में हए रोग जो उपशमित हो चुके हैं, उनकी स्मृति करके दुःखी होते रहना—यह सब प्रतिकूल वेदना या पीड़ा चिन्तवन आर्तध्यान है। (४) निदान आर्तध्यान-जो काम-भोग इस जीवन में प्राप्त न हो सके हों, उन्हें अगले जीवन में प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा और लालसा रखना, अपने प्रबल शत्र से अगले जन्म में बदला लेने की प्रबल इच्छा रखना, आदि निदान आर्तध्यान है। निदान की विशेषता यह है कि किसी भी प्रकार की विवशता (शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि) के कारण जिन काम-भोगों, वैर-बन्ध आदि को व्यक्ति इस जन्म में पूरा नहीं कर पाता और उसके हृदय में उनके प्रति उद्दाम लालसा होतो है, तो उन्हें अगले जन्मों में पूरा करने का वह दृढ़ संकल्प कर लेता है । यही निदान है। ___ संसार के अधिकांश प्राणी इस आर्तध्यान में ही निमग्न रहते हैं। कहीं इष्टवियोग का दुःख है तो कहीं अनिष्टसंयोग की पीड़ा है, कहीं रोग की चिन्ता है तो कहीं काम-भोगों की उद्दाम लालसा प्राणियों को जला रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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