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________________ २४८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना __अतः प्रतिसंलीनता तप का वाच्यार्थ हुआ-आत्म-रमणता, आत्माभिमुख होना, अन्तमुखी बनना, आत्मा में पूर्ण रूप से लीन होना। तपोयोगी साधक इस तप की साधना द्वारा अपनी बृत्ति-प्रवृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाकर आत्माभिमुख होता है । भगवती' और औपपातिक सूत्र में इसे प्रतिसंलीनता कहा है तथा उत्तराध्ययन और तत्वार्थसत्र में इसे विविक्तशय्यासन कहा गया है। अनेक ग्रन्थों में इसका नाम संलीनता, प्रतिसंलीनता और विविक्त शय्याविविक्त शय्यासन मिलता है। किन्तु ये सभी नाम एकार्थवाची हैं, एक ही भाव को प्रगट करते हैं। भगवती में प्रतिसंलीनता तप के चार भेद बताये हैं(१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता (२) कषाय-प्रतिसंलीनता (३) योग-प्रतिसंलीनता (४) विविक्त-शयनासन सेवना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता तप को साधना इन्द्रियाँ ५ हैं और उनके विषय २३ हैं। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। चक्षु-इन्द्रिय का विषय हैं रूप-यह रूपवान दृश्य और पदार्थों को देखती है। घ्राण इन्द्रिय सुगन्ध-दुर्गन्ध को ग्रहण करती है। रसना इन्द्रिय रसों का आस्वादन करती है। स्पर्श इन्द्रिय शीत-उष्ण, मृदु-कठोर आदि विभिन्न प्रकार के स्पर्शों का ज्ञान करती है। ___ अनादिकालीन संस्कारों के कारण ये इन्द्रियाँ संसाराभिमुखी होकर अपने-अपने विषयों की ओर दौड़ रही हैं। इनकी प्रमुख प्रवृत्ति बाह्याभिमुखी है, विषयों में सुख लेने की है। - इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता हुआ तपोयोगी साधक १ भगवती २५/८०२ । २ उत्तराध्ययन ३०/२८ ३ तत्वार्थ सूत्र ६/१६ ४ (क) भगवती २५/७ (ख) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० ५ औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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