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जन योग : सिद्धान्त और साधना
विकसित हो जाती हैं। वह ऐसे कार्य कर सकता है, जो साधारण लोगों को चमत्कार दिखाई देते हैं। योगी अपने भावों-विचारों की तरंगों को विद्य त तरंगों में परिवर्तित करके दूरस्थ किसी भी व्यक्ति के पास भेजकर उसे अपनी इच्छानुसार संचालित कर सकता है।
यह स्थिति ऐसी ही है जैसी कि अपने केन्द्र में बैठे हुए ही वैज्ञानिक लोग आकाश में छोड़े गये स्पूतनिकों को संचालित करते रहते हैं। यहाँ से संकेत भेजते रहते हैं और वहाँ के प्रकम्पनों को पकड़कर सन्देश प्राप्त कर लेते हैं, आकाशीय भौतिक पदार्थों में हो रहे और होने वाले परिवर्तनों को जान लेते हैं। तथा जो परिवर्तन हो चुके हैं उनका ज्ञान भी प्राप्त कर लेते हैं।
__ वैज्ञानिक जो भी विशिष्ट उपलब्धियाँ, यन्त्रों, प्रयोगशालाओं, बाह्य साधनों द्वारा प्राप्त करते हैं, वे तथा उनसे भी बहुत अधिक उपलब्धियाँ योगी अपनी प्राणशक्ति द्वारा अर्जित कर लेता है।
इसका कारण यह है कि वैज्ञानिकों का कार्य क्षेत्र भौतिक है, पदार्थ है, जो स्वयं निर्जीव है तथा उसकी शक्ति भी सीमित है, और योगी का कार्य क्षत्र चेतना है, चैतन्य जगत है जो स्वयं ही अनन्त शक्ति का भंडार है, यही कारण है कि योगी साधक की शक्तियाँ वैज्ञानिकों से बढ़ी-चढ़ी होती हैं, उन्हें देखकर वैज्ञानिक भी हतप्रभ रह जाते हैं। जिन रहस्यों को समझने और सुलझाने में वैज्ञानिकों को वर्षों तक श्रम करना पड़ता है, उन रहस्यों को योगी क्षणमात्र में ही अपनी प्राणशक्ति द्वारा समझ लेता है, सुलझा लेता है।
विज्ञान ने आज तक जितने भी आविष्कार किये हैं, मानव के मानसिक और शारीरिक स्वस्थता के साधन प्रस्तुत किये हैं, औषधियों और विद्युत तरंगों आदि से उपचार की खोज की है, वे सब परावलम्बी और अस्थायी हैं, उनसे क्षणिक लाभ और शांति तो प्राप्त हो जाती है किन्तु स्थायी लाभ अथवा शान्ति प्राप्त नहीं हो पाती।
जब कि प्राणशक्ति मानव को स्थायी सुख और शांति देने में सक्षम है। यह स्वावलम्बी भी है। इसकी साधना के लिए साधक को किसी भी प्रकार के बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं। यह शक्ति तो उसके स्वयं के अन्दर ही है।
लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से प्राण शक्ति भी बाह्य ही है, क्योंकि इसकी सीमा प्राण शरीर (तैजस शरीर) है। यदि प्राणशक्ति भावों
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